Quantcast
Channel: लावण्यम्` ~अन्तर्मन्`
Viewing all 117 articles
Browse latest View live

'बहुत रात गये 'कविता संग्रह से: ग्राम चित्र :

$
0
0
ॐ नमस्ते
 पंडित नरेंद्र शर्मा मेरे पापा जी ने 'बहुत रात गये 'कविता संग्रह अपने बन्धु बच्चन जी को समर्पित किया है।
 आज उसकी एक कविता आप सभी के संग साझा करने का मन हुआ। अवश्य पढियेगा और आपके विचार से अवगत भी करवाईएगा। 
 पितृ दिवस पर मेरे पूज्य पिता के लिए सादर दुलार सहित, अर्पित 

 ग्राम चित्र  : 
मक्का के पीले आटे  - सी 
धूप ढल रही साँझ की !
देवालय में शंख बज उठा,
घंट - नाद ध्वनि झांझ की !

गाय रंभाती आती , ग्वाला 
सेंद  चुरा कर खा रहा !
पथवारी पर बैठा जोगी 
गीत ज्ञान के गा रहा !

कहीं अकेले , कहीं दुकेले 
सारस पोखर में खड़े !
पोखर के उस पार, गाँव में 
घर घर दीये हंस पड़े !

सर पर धरे घड़ा करी का 
घर आ रहा किसान है !
बांयें एक उदुम्बर, दायें 
देवी माँ का थान है !
दोनों और आषाढी धरती 
बाट देखती बीज की !
आई याद बहु की, जो पीहर 
गयी हुई है तीज की ! 

दिखे ज्वार के भूठ्ठे , दिखती 
बाल बाजरे की भरी;
दिखी छरहरी अरहर, रहती 
जो दो सौ दिन तक हरी !

बन के खेत, बाद है सन की,
फ़ैली - फूली   तोरई 
बेल या कि सूए में कोई 
सुतली हरी पिरो गई ! 

छूटने को तैयार, हार में 
खेती मक्का की खड़ी;
हरी - भरी सुंदरी इकहरी,
काया मोती की लड़ी ! 

लड़ी सचित्र मधुर सुधियों की,
प्यास आस - औलाद की;
जी भर आया, हुई अचानक,
मोम देह फौलाद की !

भागा आया छोटा भाई,
बन्नू जिसका नाम है;
भौजी आई हैं - यों  कह  कर,
भागा उलटे पाँव है ! 

गमकी धरती, चमका अम्बर,
सधा - बंधा चलता कृषक,
घर आते किसान के मन में,
बैलों के तन में थिरक!

फूला नहीं समाता , पर वह 
लेता सध कर सांस है;
बनता जैसे वह न क्वार में 
फूला केवल कांस है ! 

जैसे कुछ न हुआ हो, ऐसे 
आया वह चौपाल पर;
गया कुऐं पर, सर पर से वह,
बोझ चरी का डाल कर ! 

आधा कुआँ घेर में, आधा 
बाहर सारे, गाँव का
आधा अपना, आधा जग का 
कृषक जीव दो पाँव का ! 

देख बहू  को अनदेखा - सा 
करता धनिया का धनी;
मन में जो सोने की मूरत ,
दिखलावे को काकणी !

फेर रही दो हाथ प्यार से 
कृषक - वधूटी जोट पर;
कभी देख लेती किसान को 
घूँघट पट की ओट कर !
भुस में हरी चरी की कुट्टी,
पूरी भरी लड़ावनी;
बड़ी बड़ी आँखें बैलों की 
भोली भली लुभावनी !

बँधी थान पर दुही धेनु के 
थन भर आते प्यार से;
पीता वत्स पिलाती माता -
चाट उसे अपनाव से !
हाथ - पाँव धो कर, चौके में 
आया स्वस्थ किसान भी; 
तीन तीन तीमन तरकारी,
थाली में पकवान भी !

भरी - पूरी थाली किसान की,
धरती जैसे क्वार की !
हुई नई हर साल कहानी 
सूर्य - धरा के प्यार की !

माँ - बेटा बैठे बतराते,
माँ की सोयी सुधि जगी - 
न्योराती की रात सातवीं 
लछमन को सकती लगी !

हनुमान लाये उपाड  कर,
भारी बहुत पहाड़ था;
छोटी - सी बूटी संजीवनी,
नौ अंगुल का झाड़ था !

बेटा बोला 'क्या भारी था 
हनुमान बलवान को !
पर, माँ, वह भी याद करेंगें 
बली भरत के बाण को !

भरत भक्त धरती का बेटा,
भक्त भरत के बान - सा !
अपने आपे को धरती पर,
किले कौन किसान - सा ?

बीच गाँव में पंचायत- घर 
गूँजा जयजयकार से;
राम - बान सा वह भी निकला 
अपने घर के द्वार से !

क्या देखा, रह गई न धरती 
अन्धकार के पाश में !
जौ के आटे की लोई - सा 
चाँद चढ़ा आकाश में ! 

झाँझी लेकर कन्या आई,
लांगूरा टेसू लिए;
नौ नगरी सौ गाँव बसेंगे,
सदा भवानी पूजिये !

जागे लछमन जती, गाँव का 
पंचायत - घर खिल गया;
राजा रामचन्द्र की जय में,
एक और स्वर मिल गया !

कथा विसर्जित हुई, नीम पर 
हिन्नीपैना आ गया;
बूढ़े बड़ की घनी जटा में 
ढलता चन्दा समा गया !

पति की पैछर सुन कर धनियाँ 
चुपके साँकल खोलती;
खड़ी कटोरा लिये दूध का,
आखर एक न बोलती !

सास - ननद - देवर के डर से 
चूड़ी खनकाती नहीं ;
पति के पास खड़ी है गुमसुम,
बहुत पास आती नहीं !

अन्धकार सागर जीवाशय,
दो लहरें टकरा रहीं;
किस विदेह से आंदोलित हो,
देह निकटतर आ रहीं !

स्ववश कौन ! ऊर्जा - तरंग में ,
विवश देह मन की लगन ! 
है पीड़ा में पुलक, दाह में 
दीप्ति, शान्ति देती अगन ! 

रीति सनातन, नया नहीं कुछ,
धरती पर, आकाश में;
तत्त्व पुरातन बनता नूतन 
अनुभव में, अभ्यास में !

ऊर्जा - पुंज सूर्य आ निकला 
क्रोड तिमिर का फोड़ कर,
लिए हुए हल - बैल कृषक भी 
खड़ा हुआ नौतोड़ पर !

वह न अहंकारी, सूरज को 
सादर शीश नवा रहा !
हलवाहे को सोच नही यह - 
उसको काल चबा रहा !

कुछ मुंह में कुछ गोद , खलक सब 
बना चबेना काल का ! 
नहीं बीज का, है शायद यह
हाल पात का डाल का !

वैकल्पिक कुछ नहीं जगत में 
सब दैवी संकल्प है !
हँसी - खेल में काम कराता,
प्रभु न कौतुकी स्वल्प है !

कब जोता ? कब बोया ? कैसे -
नई फसल उठ आ रही - 
ऊर्जा - अणु बन प्राण - पिंड को 
माया खेल खिला रही ! 

माया झूठी नहीं , नहीं तो 
सत्य छोड़ देता उसे ! 
अगर ऐंठ कर चलती ठगनी 
सत्य तोड़ देता उसे !

निर्विकल्प भव लीन कृषक का 
जीवन सहज समाधि है ;
क्षेत्र बीज से कतराने में 
आठों पहर उपाधि है ! 

देहभूमि या नेहभूमि या 
भूमि अगम आकाश की,
क्षेत्र - बीज - सम्बन्ध निबाहे ,
बिना, मुक्ति कब दास की ?

तन से दास , भक्त हैं मन से 
आत्मा से अविभक्त हैं;
क्षेत्र - बीज की तरह परस्पर 
नारी - नर आसक्त हैं !

ग्राम चित्र अंकित है जिस पर, 
वह ऊपर का पर्त् है ,
अंतर्हित गंगा - यमुना से 
सिंचित ब्रह्मावर्त है ! 

एक छमाही बीत गई है 
लगी दूसरी चैत में ,
गति में द्वैत, किन्तु गति - परिणति  
है केवल अद्वैत में !
         
जो अद्वैत, द्वैत उसको प्रिय;
बनता एक अनेक है ;
एक गीत, कड़ियाँ अनेक हैं -
एक सभी के टेक है !

चैत मास की नौरती है,
साधों का त्यौहार है;
हंसी - खुशी त्यौहार मनाना 
गाँवों का व्योहार है !

चढ़ती धुप घुले बेसन- सी
लिपी खेत खलिहान पर;
हैं किसान के नयन निछावर 
धरती के वरदान पर !

कहीं चल रही दाँय पैर में,
कहीं अन्न का ढेर है;
देर भले ही हो प्रभु के घर,
किन्तु नहीं अंधेर है !

लढ़िया भर भर रास आ रही 
हर किसान के द्वार पर;
स्वर्ण निछावर है गाँवों के 
मटमैले संसार पर !

छाती बढ़ी बहू की, घर के 
हर कोने में नाज है;
सास महाजन, जिसके मन में 
बड़ा मूल से ब्याज है !

सतमासा है छोटा बेटा,
इसे याद कर डर गई;
गुड - गेहूँ - घी चौअन्नी ले,
वह पंडित के घर गई !

आज रामनौमी है, पंडित बोला -
सुखिया जान ले !
वह नौ दिन नौ मास कोख में 
राज करेगा मान ले ! 

सावन - धोय मैल कटेंगे 
पंडित बोला प्रेम से - 
राम नाम का जप कर सुखिया,
साँझ - सवेरे नेम से !

बीती ताहि बिहार, राम जी 
तेरी मनचीती करें !
तेरे पोते के प्रताप से ,
सुखिया दोनों कुल तरे !

देवर और ननद भाभी का 
हाथ बटाते काम में !
अब की साल बहुत कम इमली,
खूब फल लगे आम में !

गेहूं बेच पटाया पोता,
गिरिधर का सीना तना - 
घर में भर गोजइ , चनारी 
मटरारी , बेझर , चना !

हाथ पसारा नहीं , कर्ज में,
पाँव नहीं जकड़े गये;
न्योली में नगदी, गठरी में 
चीज - बस्त, कपड़े नए ! 

संवतत्सर शुभ है, घर - घर में 
अन्न भरा कोठार में;
पांत बाँध कर खाया सब ने 
गाँव गाँव ज्योनार में !

अब के बरस बहुत साहे हैं 
मासोत्तम बैसाख में;
गाँव - गाँव में ब्याह हुए हैं 
दस बारह हर पाख में !

बैठा ज्यों ही जेठ, चुट गई,
अरहर, सन नुकने लगा;
सूने पड़े खेत, कृषकों का 
काम - काज चुकने लगा !

चार पहर तक चढ़ी कढ़ी- सी 
पीली आंधी आ गई;
जंगल गैल गाँव पर पीले 
पर्त धुल की छा गई !
जेठ दसहरा, नहर नहाने 
निकले घर के सब जने;
बाँट बंदरों को गुड़धानी 
खाते सब लाई - चने !
बहू मांगने लगी सिंघाड़ा,
कहाँ  सिंघाड़ा जेठ में ?
सास हंस पड़ी - तेरा ससुरा 
आया तेरे पेट में !

धनिया बनी लाज की गठरी 
ककड़ी नरम चबा रही;
हरे जवासे की हरियाली 
उसके मन को भा रही !

जेठ मास में चढ़े तवे - सी 
भूमि, तप रही रोहिणी;
बहुत दूर है मैदानों से 
श्याम  घटा मनमोहिनी !

पंथी के पांवों में छाले,
पंख पखेरू के जले ! 
ग्वाल और गोधन जा बैठे - 
सीरक में बरगद तले ! 

दोपहरी में छिपते सब, ज्यों  
भेद भरम के भेदिया;
बियाबान में लू के झोंके,
जैसे भूखे भेड़िया !

कहीं बवंडर उठते, जैसे 
हाबूङों की टोलियाँ;
बबरीबन में पवन बोलता 
बनमानस की बोलियाँ !

साँझ हुए निकले सब प्राणी 
फिर जीने की आस में;
धनिया के पांवों में बिछुआ,
बिछुआ है आकाश में !

पवन चला पुरवैया नय्या 
बनती नभ में घन - घटा;
काशीफल - सा पेट बहू का,
पीला पड कर तन लटा !

शोभित है आषाढ़ मुँड़ासा 
बाँध ज़री का जामनी;
बैठा है कुछ दूर, पारा पर कितना 
धनिया का धनी !

कौंधा का चौंधा, गड़ - गड घन,
बरसा पानी टूट के;
बह  निकले परनाले नाले 
जैसे पैसे लूट के !

जल जंगल हो गये , एक ,
बगिया में टपका आम था;
पैडा खाकर पंडित बोला,
बछड़ा घर के काम का !

आया नया किसान बंद जिसकी,
मुठ्ठी में बीज है !
छोरी आन गाँव की बछिया -
दान - मान की चीज है !

दादी ने पोते को देखा,
दादा की उनहार थी !
सुधि का बादल उमड़ा मन में,
आँखों में जलधार थी !

कर तिहायला हलुआ, पहला 
ग्रास खिलाया गाय को;
फिर चुपचाप खिलाया अपनी 
बहू - लाल की धाय को !
पुरुष बीज , नारी धरती है;
जनम जनम की प्रीती है !
नई फसल पर सृष्टि रीझती 
यही पुरानी  रीत है !
दिया सास ने सोंठ और गुड,
लिया बहू ने चख लिया;
पंडित ने नन्हे किसान का 
नाम रामधन रख दिया !

यही कहेंगें लोग, चित्र यह 
केवल विगताभास है;
किन्तु हुआ जो, होगा भी फिर,
यह मेरा विशवास है ! 
- पं . नरेंद्र शर्मा 



Indian Traditional Sarees

$
0
0
Andhra  Pradesh Pochampalli, Venkatagiri, Kalamkari
 Gujarat Rajkot, Bandhini, mirror work, Patola, Gurjari block  print
 Karnataka Kasuti embroidery, Dharwad, Mysore crepe, Ilkal,  Mankaala mooru, mysore silk
 Madhya  Pradesh Tassar, Chanderi, Maheshwari
 Maharashtra Narayanpethi, Jijamata, puneri, Paithani, Sindhi  embroidery
 Orissa sambalpuri, kotki
 Rajasthan Kota, Sanganeer block print, Bandhej
 Tamil Nadu Kanjeevaram silk, Kanjeevaram thread work in cotton,  Coimbatore cotton, Salem cotton silk, Dharmavaram
 West Bengal Baluchari, bengal cotton, tangail,  dhakai (well,  actually from Dhaka)

-- Indian traditional saree: Juhi Chawla in Bollywood Maharashtriyan Saree  

Indian Traditional Sarees


  
Indian traditional sarees(saris) are draped at festivalsweddings and many other ceremonies. Bengalis wear a Bengali traditional sarees(saris) for the DurgaPooja. They wear traditional indian saris on all the five days. It could be a white and red-bordered saree for one of the days. It should have intricate work that gives it an elegant look. Traditional white sarees are worn while going for sad gatherings. Trendy sarees or traditional Benarasi sarees are hot during wedding. They are classified as traditional wedding sarees.Traditional embroidered sarees are quite famous for sangeet and party wear. Traditional silk sarees from Bangalore, chennai make a woman's wardrobe complete. Bandhej  are the tremendous sarees of Rajasthan.
Indian traditional saree
Indian traditional saree

Indian traditional saree: Aishwarya in Bollywood bengali saree
Indian traditional saree: Juhi Chawla in Bollywood Maharashtriyan Saree
Indian traditional saree: Rani Mukharji in Bollywood Rajasthani Saree
Indian traditional saree: Madhuri Dixit in Juhi Chawla in Bollywood Maharashtriyan Saree  Bollywood old Saree: Jayaprada  bollywood saree  Bollywood old Saree: Hema malini  bollywood saree

sabina-chopra-sabyasachi-fall-09-lakme-fashion-week
- लावण्या 

साहित्यकार: श्री अमृतलाल नागर जी

$
0
0

 जन्म : १७ अगस्त १९१६  / २३  फ़रवरी, १९९० सुप्रसिध्ध साहित्यकार श्री अमृतलाल नागर जी का जन्म सुसंस्कृत गुजराती परिवार में  
सन १७ अगस्त १९१६ को गोकुलपुरा, आगराउत्तर प्रदेश में इनकी ननिहाल में हुआ था। इनके पितामह पण्डित शिवराम नागर 1895 ई. से लखनऊ आकर बस गए। इनके पिता पण्डित राजाराम नागर की मृत्यु के समय नागर जी कुल १९  वर्ष के थे। 
शिक्षा : अमृतलाल नागर की विधिवत शिक्षा अर्थोपार्जन की विवशता के कारण हाईस्कूल तक ही हुई, किन्तु निरन्तर स्वाध्याय द्वारा इन्होंने साहित्यइतिहास,पुराण , पुरातत्त्व, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान आदि विषयों पर तथा हिन्दीगुजरातीमराठीबा ंग्ला एवं अंग्रेज़ी आदि भाषाओं पर अधिकार प्राप्त किया।
उनके एक उपन्यास 'भूख 'की भूमिका में श्रध्धेय नागरजी लिखते हैं 
  भूमिका : आज से इकहत्तर वर्ष पहले सन् १८९९ -१९०० ई० यानी संवत्१९५९ -  १९५६  वि० में राजस्थान के अकाल ने भी जनमानस को उसी तरह से झिंझोड़ा था जैसे सन्’४३  के बंग  दुर्भिक्ष ने। इस दुर्भिक्ष ने जिस प्रकार अनेक साहित्यकों और कलाकारों की सृजनात्मक प्रतिभा को प्रभावित किया था उसी प्रकार राजस्थान का दुर्भिक्ष भी साहित्य पर अपनी गहरी छाप छोड़ गया है। उस समय भूख की लपटों से जलते हुए मारवाड़ियों के दल के दल एक ओर गुजरात और दूसरी ओर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के नगरों में पहुँचे थे। कई बरस पहले गुजराती साहित्य में एक वरेण्य कवि, शायद स्व० दामोदरदास खुशालदास बोटादकर की एक पुरानी कविता पढ़ी थी जो करुण रस से ओत- प्रोत थी। सूखे अस्थिपंजर में पापी पेट का गड्ढा धंसाए पथराई आँखों वाले रिरियाते हुए मारवाड़ी का बड़ा ही मार्मिक चित्र उस कविता में अंकित हुआ है।
 सन ’४७  में आगरे में अपने छोटे नाना स्व० रामकृष्ण जी देव से मुझे उक्त अकाल से संबंधित एक लोक-कविता भी सुनने को मिली थी जिसकी कुछ पंक्तियां इस समय याद आ रही हैं 
‘ आयो री जमाईड़ों धस्क्यों जीव कहा से लाऊ शक्कर घीव-
  छप्पनिया अकाल फेर मती आइजो म्हारे मारवाड़ में।'
( १९४६ ) पँचु गोपाल मुखर्जी  एक पाठशाला के निर्माण के बाद हेड मास्टरी करते हुआ, बँगाल की भूखमरी को जीते हैँ। जिसे पाठक उन्हीँ की नज़रोँ से देखता है। इस उपन्यास को आजतक, हिन्दी के खास दस्तावेज की तरह आलोचक व पाठक उतनी ही श्रध्धा से पढते हैँ जितना कि जब उसे पहली बार पढा गया होगा ! 

अमृत और विष  
कन्नड "अमृत मट्टु विष"पी. अदेश्वर राव द्वारा लिखित कथा का हिन्दी अनुवाद - जिसे साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ 
किस्से कहानियाँ,लघु कथाएँ, नाटक, निबँध, आलोचना लिखनेवाले हिन्दी के प्रसिध्ध साहित्यकार जिन्हेँ भारत सरकार ने "पद्म भूषण"पुरस्कार से नवाज़ा है। सोवियत लेन्ड अवार्ड सन १९७० मेँ मेरे चाचाजी को मिला था। तब वे बम्बई रुके थे और पापाजी से मिलने आये थे और रशिया से एक बहुमूल्य रत्न "ऐलेक्ज़ान्ड्राइट"भी लाये थे । ये  बेहद सुन्दर रत्न होता है जो रंग बदलता रहता है। मेरे चाचाजी को पापाजी के विस्तृत रत्न व ग्रहोँ के ज्ञान के बारे मेँ पता था। आज, वह "ऐलेक्ज़ान्ड्राइट " रत्न, मेरी बड़ी बहन स्व.वासवी मोदी के पुत्र मौलिक के पास है !
मेरे चाचाजी भी ऐसे ही बहुमूल्य "रत्न "थे !
हिन्दी साहित्य जगत के असाधारण प्रतिभाशाली साहित्यकार थे वे !"प्रतिभा जी"के पतिदेव! लखनऊ शहर के गौरव स्तँभ !अनगिनत उपन्यास,कथा कहानियाँ, संस्मरण, बाल वार्ताएं, फ़िल्मी पटकथाएं, फिल्म के संवाद क्या कुछ उनकी कलम ने नहीं लिखा ! अरे ,कविताएँ भी लिखा करते थे मेरे परम आदरणीय नागर जी चाचा जी ! आपको अचरज हो रहा होगा पर मेरी बात सोलहों आने सच है! अपने मित्र ज्ञानचन्द्र जैन जी को वे बंबई और पुणे प्रवास के दौरान नियमित पत्र लिखा करते थे और पुस्तक 'कथा शेष 'में ज्ञानचंद जैन जी ने उनकी एक पत्र रूपी कविता प्रकाशित की है। नवलकिशोर प्रेस के प्रकाशन विभाग अथवा 'माधुरी 'में प्रवेश न मिल पाने पर श्री अमृतलाल नागर जी ने अपनी मनोदशा इस तरह अभिव्यक्त करते हुए एक पत्र - कविता रूप में लिखा था..     '
 ज्ञान मेरे 
खत तुम्हें मैं लिख रहा हूँ जब  है खता औसान मेरे माधुरी की धुरी टूटी मैं गिरा अनजान एकदम कह दिया प्रोपराईटर ने रख नहीं सकते तुम्हें हम वह खर्च घटाते अपना   सूखते हैं प्राण मेरे ! ' -अमृतलाल नागर 
अब , अगर आप सोच रहें हैं कि  हिन्दी साहित्य जगत के विलक्षण लेखक, एक असाधारण  प्रतिभाशाली साहित्यकार, श्री अमृतलाल नागर जी से भला, मेरा परिचय कब हुआ होगा ? तब उत्तर में, मैं , यही कहूँगी कि, जब से मैंने होश सम्भाला था तभी से उन्हें प्रणाम करना सीख लिया था! मेरे नन्हे से जीवन का एकमात्र सौभाग्य यही है कि मैं  लावण्या , पंडित नरेंद्र शर्मा जैसे संत कवि की पुत्री बन कर इस धरा पर आयी! पूज्य पापा जी और मेरी अम्मा सुशीला की पवित्र छत्र छाया में पल कर बड़े होने का सौभाग्य मुझे मिला!
   पापा जी के बम्बई आगमन के बाद कवि शिरोमणि श्रध्धेय सुमित्रानंदन पन्त जी दादा जी भी उनके संग रहने के लिए सन १९३६ से बम्बई आ गये थे। पापाजी और पन्त जी दादा जी तैकलवाडी , माटुंगा उपनगर में शिवाजी पार्क उद्यान के करीब पहले मंजिल के एक फ्लैट में कई वर्ष साथ रहे। बंबई में हिन्दी फिल्म निर्माण संस्थाएं विकसित हो रहीं थीं और साहित्यकार श्री अमृतलाल नागर जी, श्री भगवती चरण वर्मा इत्यादी भी बंबई में रहते हुए फिल्मों के लिए कार्य कर  रहे थे। उस समय भारत स्वतन्त्र नहीं हुआ था। परन्तु अंग्रेज़ी सरकार के शोषणकारी अध्याय का अंतिम अध्याय लिखा जा रहा था।  
चित्रलेखा उपन्यास के सर्जक श्री भगवती चरण वर्मा जी, श्री अमृतलाल नागर जी, श्रध्धेय सुमित्रानंदन पन्त जी तथा नरेंद्र शर्मा की साहित्यिक , सांस्कृतिक मित्रता भरे बंबई शहर में गुजरे इन दिनों के क्या कहने ! कुछ समय के लिए मद्रास में भी  ये लोग साथ साथ यात्रा पर गये थे।  श्री अरविन्द आश्रम पोंडिचेरी तक आदरणीय नागरजी ने उस दौरान यात्रा की थी।  फलस्वरूप इन सभी का आपस में सम्बन्ध और अधिक घनिष्ट हो गया । 
  बंबई के प्रिंस ऑफ़ वेल्स म्यूजियम के क्यूरेटर , भारतीय पुरातत्व और संस्कृति के उदभट विद्वान भार्तेन्दु  हरीश्चंद्र के प्रपौत्र , अपने व्यक्तित्व में बनारसी मौज - मस्ती के साथ विद्वत्ता का घुला मिला रूप लिए कला मर्मज्ञ  और साहित्यिक मनीषी,  डा.मोतीचंद्र जी  भी  बंबई के माटुंगा उपनगर में रहते थे जहां भगवती बाबू उनके पडौसी थे और अमृतलाल नागर, भगवती बाबू, मोतीचंद्र जी , नरेंद्र शर्मा जी की गोष्ठीयां कई बार प्रिंस ऑफ़ वेल्स म्यूजियम से सटे  एक बंगले पर जमती और वातावरण साहित्यमय, कलामय और संस्कृतिमय हो उठता ! 
 आदरणीय पन्त जी दादा जी के आग्रह से ही एक गुजराती परिवार की कन्या सुशीला से , प्रसिध्ध गीतकार नरेंद्र शर्मा का विवाह १२ मई १९४७ के शुभ दिन हुआ था। उसी वर्ष पराधीन भारत माता, देश भक्त भारतीयों के अथक प्रयास से और सत्याग्रह आन्दोलन के अनूठे प्रयास से सफल हो , गुलामी की जंजीरों से आज़ाद हुईं थीं!
          पूज्य अमृत लाल नागर चाचाजी ने अपने संस्मरण में लिखा है कि,'जिस दिन भारत स्वतन्त्र हुआ वे और उनके परम सखा कवि गीतकार नरेंद्र शर्मा, ( मेरे पूज्य पापाजी ) बाहों में बाहें डाले, बंबई की सडकों पर, बिना थके, प्रसन्न मन से, पैदल, बड़ी देर तक घूमे थे। उसी पावन क्षण, उन्होंने प्रण लिया था कि अब से वे अपना समय, साहित्य सेवा, या हिन्दी लेखन को समर्पित करेंगें। चाहे जो बाधा आये वे इस निर्णय से नहीं डीगेंगे  !' 
        तब तक नागरजी चाचा जी फिल्मों के लेखन से ऊब चुके थे।  जहां ४ या ५ फिल्मों के लिए संवाद , पटकथा लेखन करते हुए पैसा तो मिल जाता था पर मन की शांति और चैन छीन गया था। एक जन्मजात साहित्यकार और नित नया सृजन करनेवाले रचनाकार के लिए स्वान्त: सुखाय लेखन ईश्वर आराधना से कम नहीं होता। इस पवित्र धारा प्रवाह से विमुख होकर वे क्षुब्ध थे और एकमात्र यही मार्ग उन्होंने आने वाले अपने समय के लिए निश्चित करने का संकल्प किया था!  
         हमारी आँखें ना जाने क्या क्या दृश्य देखतीं रहतीं हैं और मन ना जाने कितनी सारी स्मृतियाँ संजोये रखता है! डायरी में बंद पन्नों की तरह! अगर हम इन पन्नों को एक बार फिर खोल कर नजरें घुमाएं, तब बीता हुआ अतीत , फिर सजीव होकर स्पष्ट  हो जाता है। यही हम इंसानों के जीवन का रोमांचकारी रहस्य है और जीवन वृन्तात का कुल जमा उधार है।
आप इस दृश्य से एकाकार हो लें तब आपको मेरे शैशव की कुछ अनमोल स्मृतियों के दृश्य जो अभी मेरे अंतर्मन में उभर रहे हैं उनसे परिचित करवाऊं ! 
           मेरे शैशव के दिनों की याद,  मेरे साथ है जहां चाचा जी , जो अक्सर बम्बई आया करते थे वे भी यादों के कोलाज में सजीव  दीखलाई देते हैं।
       कई बार नागर जी चाचाजी बंबई की उमस भरी गर्मियों के ताप को सहर्ष स्वीकारते हुए उनके बंबई के आवास 'सेरा विला 'से पैदल चलते हुए पापा जी के घर तक आ जाया करते थे। 
   मेरे पापा जी पंडित नरेंद्र शर्मा का घर, खार उपनगर में १९ वें रास्ते पर स्थित है। खार उपनगर का छोटा सा , एक स्टेशन भी है जहां बंबई की लोकल ट्रेन रूकती है। वहीं से चल कर, रेलवे स्टेशन से कुछ दूरी पर, श्रीमान मोतीलाल बनारसी जी की मिठाई की दूकान 'बनारसी स्वीट मार्ट 'भी है। इनके रसगुल्ले और समोसे बड़े प्रसिध्ध हैं! हाँ याद आया, रबडी भी! इसी दूकान से अक्सर नागर जी चाचाजी  कोइ रसीली मिठाई भी मिट्टी की हँड़िया में भरवा कर कि जिस हांडी पर एक हरा पात मुख को ढांके रहता था, हाथों में उठाये, हमारे घर आ पहुँचते थे। पसीने से तरबतर,  भीषण गर्मी में चल कर आते आते , उनका श्वेत कुर्ता भीग जाता था ! उन्हें देखते ही हम सब 'नमस्ते चाचा जी 'कहते और वे 'खुश रहो 'कहते हुए आशीर्वाद देते।  घर के भीतर आकर स्वागत कक्ष में पंखा खोल देने पर,  चाचा जी आराम से बैठ जाते और उनके चेहरे पर मुस्कान खिल उठती! सारा परिश्रम तेज घुमते पंखे की हवा के साथ हवा हो जाता! रह जाता सिर्फ उनका वात्सल्य और सच्चा स्नेह! 
          मेरी अम्मा ने ही हम से कहा था 'अरे , रे रे.. देखो तो, मीलों पैदल चल कर आये हैं नागर जी! पर बस से या टेक्सी से नहीं आये और अपने मित्र के लिए मिठाई लेते आये। कैसा निश्छल स्नेह करते हैं। ' 
           मेरी अम्मा श्रीमती सुशीला नरेंद्र शर्मा और पापा जी किसी अभिनन्दन समारोह में शामिल होने के लिए एक बार लखनऊ गये थे। अम्मा ने लौटने के बाद हमे बतलाया था कि उन्हें  इतना स्नेह मिला था सौ. प्रतिभा जी व पूज्य नागर जी चाचा जी के घर के अम्मा,पापा जी अभिभूत हो उठे थे। उनके आतिथ्य का बखान करते मेरी अम्मा थकतीं न थीं! वहां ( लखनऊ ) उस समय, आम का मौसम था और एक एक आम अपने हाथों से घोल कर स्नेह पूर्वक, आग्रह करते हुए नागर दम्पति ने उन्हें आम खिलाये थे। यह भी समझने की बात है कि आम खाने से भी अधिक प्रसन्नता, उन चारों को एक दुसरे के साथ मिलकर हुई होगी! उन चारों में,  प्रगाढ़  स्नेह था। चूंकि जब मेरी अम्मा , कुमारी सुशीला गोदीवाला का विधिवत पाणिग्रहण संस्कार हुआ था तब सारा कार्य भार भी नागर जी चाचा जी और प्रतिभा जी ने ही अपने जिम्मे सहर्ष स्वीकार कर लिया था। मेरी अम्मा सुशीला अत्यंत रूपवती थीं और गुजराती कन्या सुशीला गोदीवाला को दुल्हन के भेस में देख सभी प्रसन्न थे।  प्रतिभा जी ने नव परिणीता नव वधु को गृह प्रवेश करवाया तब सुकंठी सुरैया जी और दक्षिण की गान कोकिला एम. एस. सुब्भालक्ष्मी जी ने मंगल गीत गाये थे! इस मित्रों से घिरे परिवार के बुजुर्ग थे हिन्दी काव्य जगत के जगमगाते नक्षत्र कविवर श्री सुमित्रा नंदन पन्त जी ! 
             हिन्दी साहित्य, बंबई की  फ़िल्म नगरी के गणमान्य प्रतिनिधि जैसे चेतनानन्द जी, दिलीप कुमार, अशोक कुमार जैसे कई महानुभाव इस शानदार बरात में शामिल हुए थे। श्रीयुत सदाशिवम,सुब्भालक्ष्मी जी की नीली शेवरलेट गाडी को सुफेद फूलों से सजाया गया। उसी फूलों से सजी कार में सवार होकर शर्मा दम्पति अपने घर तक आये। 
बहुत बरसों बाद जब हम बड़े हुए, अम्मा ने आगे ये भी बतलाया था कि  प्रतिभा जी ने उस रात उन्हें फूलों के घाघरा ओढ़नी पहनाकर उन्हें  सजाया था।  तो पन्त जी दादा जी ने कहा  था कि 'मैं सुशीला जी को एक बार देखना चाहता हूँ ' और मुंह दीखाई में आशीर्वाद देते हुए कहा  था 'शायद वनकन्या शकुन्तला भी ऐसी ही सुन्दर रहीं होंगीं ! ' 
     बरसों बीत गये !  हम चार भाई बहन बड़ी वासवी, मैं लावण्या, मंझली, छोटी बांधवी और हमारा अनुज परितोष बड़े हुए।  हम  वयस्क  हो गये तब अम्मा ने हमे यह अतीत के भावभीने संस्मरण सुनाये थे। सुनाते वक्त , अम्मा , अपने युवावस्था के उन सुनहरे पलों में खो सी जातीं थीं। 
  अम्मा और पापा जी की शीतल छत्रछाया का एक आश्रय  स्थान , हमारा  घर, जो  १९ वे रस्ते पे आज भी खड़ा हुआ है , उस घर के संग,  अनेक स्वर्णिम स्मृतियाँ जुडी हुईं हैं और जब कभी नागर जी चाचा जी हमारे यहाँ पधारे तब  उन्हें , पापा जी के घर के स्वागत कक्ष में बिछे मैरून रंग के पर्शियन कारपेट पर , पालथी मारे बैठे हुए,  आज भी मैं मन की आँखों से देख पाती हूँ। [यह पर्शियन कारपेट युसूफ खान माने दिलीप कुमार जी तोहफे में अम्मा पापा जी की शादी पर दे गये थे। अपनी कार में वे , कई सारे कारपेट लाये थे और पापा जी ने अम्मा से इशारा कर मना किया था परन्तु जब युसूफ अंकल ने बहोत आग्रह किया तब अम्मा ने जो सबसे छोटी कारपेट थी वही युसूफ अंकल के  अनुनय के बाद ले ली थी]   
  श्रध्धेय नागर जी चाचा जी  की उन्मुक्त , निर्दोष हंसी भी सुनाई देती है और बातों का सिलसिला , जो  परम - स्नेही  सखाओं के बीच जारी था, जिसे समझने की उमर तो मेरी कदापि न थी पर यादें हैं जो एक स्वर्णिम आभा में रँगी हुईं आज भी चटख रंग लिए,  दमक  रहीं हैं। बीते हुए  पल , आज मुझे जादुभरे क्षणों से जान पड़ते हैं। 
  प्रधान मंत्री श्रीमती इन्दीरा गांधी के लिए उनका प्यार भरा संबोधन भी स्मृति की शाखों पे महकते फूल सा आज भी टिका हुआ है और चाचा जी का स्वर सुनाई पड़ता है,'हमारी बिटिया सरकार '…  ऐसा घना  अपनत्व, कोमल ममता  से गूंथे पलछिन,  मेरे जीवन के अनमोल धरोहर रूपी वरदान की तरह मेरे साथ हैं।  आज वे पल , मेरे ह्रदय में पवित्रता बिखेरते हुए सुरक्षित हैं। काश मैं,अपने प्यारे नागर जी चाचा जी की विद्वत्ता या साहित्यिक अवदान के बारे में आप से कुछ कह  पाती! परन्तु ये कार्य और ज्ञानी जन के हवाले करती हूँ ! उनके साहित्य पर, उनके अवदान पर,  सांस्कृतिक मूल्यों  वगैरह पर  विद्वान लोग चर्चा करते रहेंगें  इस बात का मुझे विशवास है। मेरे लिए तो उनकी और मेरे पापा जी की मित्रता, एक घर के सदस्यों सी घनिष्टता ही मुझे बरबस याद आती है। उनके भाई श्री रतन नागर जी अच्छे कलाकार थे और मेरी अम्मा भी हलदनकर इंस्टीटयूट से ४ साल चित्रकला सीखीं थी। श्री  रतनलाल नागरजी  श्री  साउंड स्टूडियो में फोटोग्राफर थे और  तीन दिनों की बीमारी में चल बसे थे।  श्री रतन नागर जी का बनया हुआ एक चित्र 'अर्धनारीश्वर ' शायद आज भी पापा जी के घर के सामान में कहीं अवश्य होगा। 
एक बार मद्रास  यात्रा का एक रोचक  किस्सा भी सुनाया था जिसे आप भी सुनें  ! 
 पापा जी और नागर जी एक मद्रासी सज्जन के घर , अतिथि बन कर पहुंचे थे। भिन्न प्रकार के खाद्यान्न परोसे गये थे जिनमे एक शायद नीम के पत्तों का पानी था! बेहद कडुवा और कसैला! तब चाचाजी और पापा जी , दोनों ने सोचा कि , पहले इसे ही पी कर समाप्त किया जाए फिर बाकी की बानगी खायेंगें। परन्तु जैसे ही वे कडवे पानी की कटोरी को पी लेते , उनकी कटोरी दुबारा भर दी जातीं! तब तो दोनों बहुत घबडाए और बंबई आने के बाद उस प्रसंग को याद कर काफी हंसी मजाक होता रहा।
 ये किस्सा भी मुझे  याद है और पापा जी का कहना कि 
'बंधू उस बार तो हम चीं  बोल गये !'आज भी चेहरे पे मुस्कराहट ला देता  है।      
हम बच्चों से हमारी  स्कूल के बारे में, मित्रों के बारे में, हम कौन सी पुस्तक पढते हैं , हमारी पसंद ,नापसंद इत्यादी के बारे में भी चाचा जी प्रश्न पूछते और हम से बहुत स्नेह पूर्वक  बात करते उस वक्त हमे लगता जैसे हमारे परिवार के वे बड़े हैं , हमारे अपने हैं!     
हाँ, एक बात बतला दूं,  उनका लिखा उपन्यास  'सुहाग के नुपूर 'जिस दिन मैं ने पूरा पढ़ लिया था उस दिन से आज तक, वही मेरा सर्वकालिक- सर्व प्रिय उपन्यास है और मेरी ये भी दिली ख्वाहिश है कि मेरी बड़ी बहन पूज्य अचला दीदी इस उपन्यास की पटकथा  लिखें और उस पे एक बढिया फिल्म बने। उनकी बडी सुपुत्री, डो. अचला नागर जी ने  फिल्म "निकाह"की पटकथा लिखी है और ऋचा  नागर ने अपने प्रिय "दद्दु"से प्रेरणा लेकर,'आओ बच्चोँ नाटक लिखेँ' बाल नाट्य अकादमी संस्था स्थापित की है-  लिंक  http://www.tc.umn.edu/~ nagar/index.htmlजिस तरह आज भी मन तो यही चाहता है कि मैं फिर लौट जाऊं उन बचपन की सुनहरी गलियों में, जहां मेरे पापा जी का घर उसी दिन की तरह हमारे आदरणीय पूज्य नागर जी चाचा जी, पन्त जी दादा जी जैसी विभूतियों से जगमगाता, दमकता मेरी स्मृतियों में झांकता रहता है। पर बीते दिन क्या कभी किसी के लौटे हैं ? हाँ,  यादें रह जातीं हैं जिन्हें आज आप से साझा करने का सुअवसर मिला है जिसके लिए मैं कृतज्ञ हूँ!  मेरे शत शत प्रणाम एक सच्चे साहसी वीर, धीर साहित्य मनीषी को और मेरा ढेर सारा प्यार मेरे पूज्य नागर जी चाचा जी को। 
- लावण्या दीपक शाह 

सीनसीनाटी, ओहायो यु. एस. ए.
इ मेल : Lavnis@gmail.com  

सत्य

$
0
0
क्या आप हमेशा सच बोलते हैं? बोल पाते हैं ? क्यूँ 
---------------------------------------------------------------------
कोशिश तो यही रहती है की सच बोलूं और अगर कुछ अप्रिय सत्य है तब 
'ना ही बोलूं तो अच्छा हो 'ये उम्र बढ़ते हुए सीख लिया है। 
तब सही उत्तर तो यही रहेगा कि अभ्यास से मन और विचारों को केन्द्रीत करते हुए 
'सत्य 'बोलने की कोशिश रहती है। बोल पाती भी हूँ और इसके लिए क्यों तो सरल सा उत्तर है कि 'सत्य हमेशा जैसा हमारे स्वयं के लिए सही और उपयुक्त रहता है वैसे ही हम समानभाव से अन्य को भी देखते रहें तब वही 'सत्य ' दूसरों के लिए भी सही और उपयुक्त रहता है। जीवन में शान्ति, संतोष और स्वभाव में दया ममता वात्सल्य एवं करूणा जैसे अच्छे भावों का उदय भी 'सत्य 'व्रती होने से संभव हो जाता है।
 
आधुनिक युग २१ वीं सदी का आरम्भ काल अत्याधिक बदलाव और असमंजस भरा समय है। आजकल किसी के पास समय ही कहाँ है कि , किसी की सुनें ! इसलिए बेहतर है कि अवसर और पात्र को देख कर व्यक्ति या तो बोलें , चुप रहैं , सुने या गुनें। 
यह भी संभव है कि अगर व्यक्ति , अप्रिय या कटु सत्य बोले तब वहां सुनने के लिए  ठहरेगा भला कौन ?
आज का समय २१ वीं सदी तक आकर सम्प्रेषणाओं, त्वरित फैलते समाचार व्यूह के दमन चक्र और घात एवं प्रतिघातों का समय है। सच का स्वरूप तो वही रहा परन्तु उक्त 'सत्य 'को दर्शाने के जरिये कई विध हो गए। टेलीविजन, फेसबुक ट्वीटर जैसे संसाधनों ने विश्व में दिन रात हो रही हलचलों को 'ब्रेकिंग न्यूज़ 'का मसाला बना लिया है और दिन रात जनता के समक्ष विभिन्न देशों की सरकारें और समाज व्यवस्था अपने ढंग से जो हो रहा है उसका आँखों देखा हाल जारी किये जा रही है।  
आवश्यकता है उस समय एकचित्त होकर अपने अंतर्मन में एक तटस्थ द्वीप स्थापना की। उस द्वीप में शाश्वत मूल्यों का एक दीप स्तम्भ भी अवश्य जला रहे जो भावनाओं के प्रतिघातों के सुनामी के मध्य भी स्थिर खड़ा रहे। सुनें सब की परन्तु अपने अंतर आत्मा में बैठे , एक अन्तर्यामी प्रभु की शरण में मन रहे। इस का ध्यान रहे।
अब , कई विभिन्न ग्रंथों व व्यक्तिओं के 'सत्य 'पर लिखे सुविचार जो जग प्रसिद्ध हैं। 
उन्हें भी देखते चलें और उन्हें पुन : याद कर लें।
'सत्यं वद, धर्मं चर', सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्, मा ब्रूयात सत्यमप्रियम्। ‘
सत्य बोलो, प्रिय बोलो किंतु अप्रिय सत्य तथा प्रिय असत्य मत बोलो।’ 
‘हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः।’ 
यानी प्रिय-सत्य एक साथ नहीं हो सकते। जब सत्यता कटु है और असत्य में माधुर्य है तो क्या करना चाहिए? 
सत्य अप्रिय और असत्य प्रिय होता है, इसीलिए असत्य का बोलबाला है। 
‘‘मधुर वचन है औषधी, कटुक वचन है तीर।’’ 
यानी सत्य हानिकारक शस्त्र है और असत्य लाभदायक औषधि है। 
बाबा तुलसी ने स्पष्ट कर दिया, 
‘‘सचिव वैद गुरु तीन जो प्रिय बोलें भय आश। 
राज धर्म तन तीन कर होय वेग ही नाश।।’’
सत्-चित्-आनंद यानी सच्चिदानंद स्वरूप वह परमतत्व है, जिसे परब्रह्म परमात्मा या परमेश्वर कहते हैं। ‘‘सत्यं ब्रह्म जगन्मिथ्या’’ यह वेदबाक्य स्पष्ट करता है कि सत् रूप ब्रह्म है, सत् से सत्य शब्द बना अर्थात् जो सत् (ब्रह्म के योग्य है वही सत्य है। यह सत् जब मन-वाणी-कर्म ही नहीं बल्कि श्वांस-श्वांस में समा जाता है तब किसी तरह द्विविधा नहीं रहती। सिर्फ सत् से ही सरोकार रह जाय, तब ‘सत्यं वद’ को कंठस्थ हुआ मानो।
सन्मार्ग से विचलित न होना सत्स्वरूप परमेश्वर की कृपा से ही संभव है। सन्मार्ग पर पहला कदम है सद्विचारों का आविर्भाव होना। विचारों से दुबुद्धि का सद्बुद्धि के रूप में परिवर्तन दिखाई देगा। बुद्धि से संबद्ध विवेक में सत् का समावेश होगा और वह सत्यासत्य का भेद करने की राजहंसीय गति प्राप्त कर लेता है। 
अष्टांग योग प्रथमांग यम का प्रथम चरण ही सत् है, सत् पर केंद्रित होने की दशा में ही ‘योगश्चित्त वृत्तिः निरोधः’ सद्बुद्धि ही चित्तवृत्तियों को नियंत्रित करती है। 
अन्तःचतुष्टय में बुद्धि के बाद चित्त, अहंकार में ब्रह्मरूपी सत् समावेश होते ही मन पर नियंत्रण पाया जा सकता है। मन पर केंद्रित हैं, कामनायें। जो इन्द्रियों की अभिरुचि के आधार पर प्रस्फुटित होती है। कामनाओं का मकड़जाल ही तृष्णा है। संतोष रूपी परमसुख से तृष्णा का मकड़जाल टूटता है। मन द्वारा कामनाओं के शांत हो जाने से आचरण नियंत्रित हो जाता है। 
‘‘आचारः परमो धर्मः’’ आचरण में सत् का समावेश ही सदाचार कहा गया है। ऐसे में कदाचार की कोई गुंजाइस नहीं रहती, मनसा-वाचा-कर्मणा लेश मात्र भी कदाचार दिखे तो मान लो कि यहां सत्यनिष्ठा का सिर्फ दिखावा है। सदाचार स्वच्छ मनोदशा का द्योतक है। जबकि कदाचार की परधि में अनाचार, अत्याचार, व्यभिचार और भ्रष्टाचार अदि आते हैं। 
सत्-जन मिलकर 'सज्जन ' शब्द बनता है। प्रत्येक व्यक्ति सज्जन नहीं होता। इसी तरह सत् युक्त होने पर सन्यास की स्थिति बनती है। 
कुल मिलाकर कह सकते हैं कि सत्यनिष्ठा ही धर्मनिष्ठा, कर्मनिष्ठा और ब्रह्मनिष्ठा है। क्योंकि धर्म, कर्म ही ब्रह्मरूप सत् है। सत्य परेशान भले हो मगर पराजित नहीं होता। तभी तो ‘‘सत्यमेव जयते’’ के बेदवाक्य को राष्ट्रीय चिन्ह के साथ जोड़ा गया। यह भी विचारणीय है- सत्य परेशान भी क्यों होता है? अध्यात्म विज्ञान स्पष्ट करता है कि सत्यनिष्ठा में अंशमात्र का वैचारिक प्रदूषण यथा सामथ्र्य परेशानीदायक बन जाता है। 
सत्यनिष्ठा का सारतत्व यह है-‘‘हर व्यक्ति सत्य, धर्म व ज्ञान को जीवन में उतारे। 
 यदि सत्य-धर्म-ज्ञान तीनों न अपना सकें तो सिर्फ सत्य ही पर्याप्त है क्योंकि वह पूर्ण है सत्य ही धर्म है, और सत्य ही ज्ञान। सदाचार से दया, शांति व क्षमा का प्राकट्य होता है। वैसे सत्य से दया, धर्म से शांति व ज्ञान से क्षमा भाव जुड़ा है। सत् को परिभाषित करते हुए रानी मदालिसा का वह उपदेशपत्र पर्याप्त है जो उन्होंने अपने पुत्र की अंगूठी में रखकर कहा था कि जब विषम स्थिति आने पर पढ़ना। ‘‘संग (आसक्ति) सर्वथा त्याज्य है। यदि संग त्यागने में परेशानी महसूस हो तो सत् से आसक्ति रखें यानी सत्संग करो इसी तरह कामनाएं अनर्थ का कारण हैं, जो कभी नहीं होनी चाहिए। कामना न त्याग सको तो सिर्फ मोक्ष की कामना करो।’’ 
अनासक्त और निष्काम व्यक्ति ही सत्यनिष्ठ है। आसक्ति और विरक्ति के मध्य की स्थिति अनासक्ति है। जो सहज है, ऋषभदेव व विदेहराज जनक ही नहीं तमाम ऐसे अनासक्त राजा महाराजा हुए है। आज भी शासन, प्रशासन में नियोजित अनासक्त कर्तव्यनिष्ठ नेता व अफसर हैं जिन्हें यश की भी कामना नहीं है।
अब कुछ अपने मन की बात :
मेरी कविता द्वारा मन में हिलोरें लेतीं अनुभूतियाँ कहतीं हैं ,
घना जो अन्धकार हो तो हो  रहे, हो रहे 
तिमिराच्छादित हो निशा भले हम वे सहें  
चंद्रमा अमा का लुप्त हो आकाश से तो क्या 
हूँ चिर पुरातन, नित नया रहस्यमय बिंदु मैं 
हूँ मानव ! ईश्वर का सृजन अग्नि शस्य हूँ मैं! 
काट तिमिर क्रोड़ फोड़ तज  कठिन कारा , 
नव सृजन निर्मित करूं निज कर से पुनः मैं !
हैं बल भुजाओं में  वर शाश्वत शक्ति पीठ का  
हे माँ ! दे मुझे वरदान ऐसा हूँ शिशु अबोध तेरा  
कन्दराएँ फोड़ निर्झर सा बहूँ  ऐसा वरदान दे !
अब हम 'सत्य 'को परिभाषित करें तब कहेंगें कि  'सत्य 'ईश्वर का अंश है।  
'ईश्वर सत्य है , 
  सत्य ही शिव है ,
  शिव ही सुन्दर है 
जागो उठ कर देखो जीवन ज्योति उजागर है 
सत्यम शुवम् सुंदरम ' 
यह गीत रचना मेरे पापा जी पंडित नरेंद्र शर्मा जी की है जिसमे संक्षिप्त में 'सत्य ही सुन्दर है क्यों कि सत्य में 'शिवतत्व 'का वास है यह प्रतिपादित किया गया है। 
इंसान असत्य बोलता है तो वह भी 'सत्य 'का आधार लेकर और ये सोचकर कि संभवत; उस के झूठ को शायद सच मान लिया जाएं ! 
'तीन चीजें ज्यादा देर तक नहीं छुप सकती, सूरज, चंद्रमा और सत्य ! 'ये कहा था भगवान गौतम बुद्ध ने ! 
'सत्य अकाट्य है। द्वेष इसपे हमला कर सकता है, अज्ञानता इसका उपहास उड़ा सकती है, लेकिन अंत में सत्य ही रहता है। 'ये कहा विन्सेंट चचिल ने। 
'मेरा धर्म सत्य और अहिंसा पर आधारित है। सत्य मेरा भगवान है। अहिंसा उसे पाने का साधन। 'ये कहा महात्मा गांधी जी ने।  
मुन्डकोपनिषद के मुंडक ३ के पांचवें श्लोक का अवलोकन करें-
सत्यमेव जयति नानृत
सत्येन पन्था विततो देवयानः
येनाक्रममन्त्यृषयो ह्याप्तकामा
यत्र तत् सत्यस्य परमं निधानाम् ।।
सत्य (परमात्मा) की सदा जय हो, वही सदा विजयी होता है। अनृत - असत् (माया) तात्कालिक है उसकी उपस्थिति भ्रम है। वह भासित सत्य है वास्तव में वह असत है अतः वह विजयी नहीं हो सकता. ईश्वरीय मार्ग सदा सत् से परिपूर्ण है। जिस मार्ग से पूर्ण काम ऋषि लोग गमन करते हैं वह सत्यस्वरूप परमात्मा का धाम है।
मांडूक्य उपनिषद में  १२ मन्त्र समस्त उपनेषदीय ज्ञान को समेटे हैं  जाग्रत , स्वप्न एवं सुषुप्त मनुष्य अवस्था हर प्राणी का सत्य है और इस सत्य के साथ ही निर्गुण पर ब्रह्म व अद्वैतवाद भी जुडा हुआ है  ऊंकार ही हर साधना , तप एवं ध्यान का मूल मन्त्र है यह मांडूक्य उपनिषद की शिक्षा है 
अथर्ववेद : ‘ गणपति उपनिषद ‘ का समावेश अथर्व वेद में किया गया है  अंतगोत्वा यही सत्य पर ले चलते हुए कहा गया है कि, ईश्वर समस्त ब्रह्मांड का लय स्थान है ईश्वर सच्चिदान्द घन स्वरूप हैं , अनंत हैं, परम आनंद स्वरूप हैं 
सीता उपनिषद : सीता नाम प्रणव नाद , ऊंकार स्वरूप है । परा प्रकृति एवं महामाया भी वहीं हैं । ” सी ” – परम सत्य से प्रवाहित हुआ है । ” ता ” वाचा की अधिष्ठात्री वाग्देवी स्वयम हैं । उन्हीं से समस्त ” वेद ‘ प्रवाहित हुए हैं ।सीता पति ” राम ” मुक्ति दाता , मुक्ति धाम , परम प्रकाश श्री राम से समस्त ब्रह्मांड , संसार तथा सृष्टि उत्पन्न हुए हैं जिन्हें ईश्वर की शक्ति ‘ सीता ‘ धारण करतीं हैं कारण वे हीं ऊं कार में निहित प्रणव नाद शक्ति हैं।  श्री रूप में, सीता जी पवित्रता का पर्याय हैं। सीता जी भूमि रूप भूमात्म्जा भी हैं । सूर्य , अग्नि एवं चंद्रमा का प्रकाश सीता जी का ‘ नील स्वरूप ‘ है । चंद्रमा की किरणें विध विध औषधियों को , वनस्पति में निहित रोग प्रतिकारक गुण प्रदान करतीं हैं । यह चन्द्र किरणें अमृतदायिनी सीता शक्ति का प्राण दायक , स्वाथ्य वर्धक प्रसाद है । वे ही हर औषधि की प्राण तत्त्व हैं सूर्य की प्रचंड शक्ति द्वारा सीता जी ही काल का निर्माण एवं ह्रास करतीं हैं । सूर्य द्वारा निर्धारित समय भी वही हैं अत: वे काल धात्री हैं । पद्मनाभ, महा विष्णु, क्षीर सागर के शेषशायी श्रीमन्न नारायण के वक्ष स्थल पर ‘ श्री वत्स ‘ रूपी सीता जी विद्यमान हैं । काम धेनू एवं स्यमन्तक मणि भी सीता जी हैं ।
वेद पाठी , अग्नि होत्री द्विज वर्ग के कर्म कांडों के जितने संस्कार, विधि पूजन या हवन हैं उनकी शक्ति भी सीता जी हैं । सीता जी के समक्ष स्वर्ग की अप्सराएं जया , उर्वशी , रम्भा , मेनका नृत्य करतीं हैं एवं नारद ऋषि व तुम्बरू वीणा वादन कर विविध वाध्य बजाते हैं चन्द्र देव छत्र धरते हैं और स्वाहा व स्वधा चंवर ढलतीं हैं ।
राजकुमारी सीता : रत्न खचित दिव्य सिंहासन पर श्री सीता देवी आसीन हैं । उनके नेत्रों से करूणा व् वात्सल्य भाव प्रवाहमान है । जिसे देखकर समस्त देवता गण प्रमुदित हैं । ऐसी सुशोभित एवं देव पूजित श्री सीता देवी ‘ सीता उपनिषद ‘ का रहस्य हैं । वे कालातीत एवं काल के परे हैं ।
यजुर्वेद ने ‘ ऊं कार ‘ , प्रणव – नाद की व्याख्या में कहा है कि ‘ ऊं कार , भूत भविष्य तथा वर्तमान तीनों का स्वरूप है । एवं तत्त्व , मन्त्र, वर्ण , देवता , छन्दस ऋक , काल, शक्ति, व् सृष्टि भी है ।
सीता पति श्री राम का रहस्य मय मूल मन्त्र ” ऊं ह्रीम श्रीम क्लीम एम् राम है । रामचंद्र एवं रामभद्र श्री राम के उपाधि नाम हैं । ‘ श्री रामं शरणम मम ‘
श्रीराम भरताग्रज हैं । वे सीता पति हैं । सीता वल्लभ हैं । उनका तारक महा मन्त्र ” ऊं नमो भगवते श्री रामाय नम: ” है । जन जन के ह्दय में स्थित पवित्र भाव श्री राम है जो , अदभुत है ।
श्री सीता - स्तुति :
सुमँगलीम कल्याणीम सर्वदा सुमधुर भाषिणीम
वर दायिनीम जगतारिणीम श्री रामपद अनुरागिणीम
वैदेही जनकतनयाम मृदुस्मिता उध्धारिणीम
चँद्र ज्योत्सनामयीँ, चँद्राणीम नयन द्वय, भव भय हारिणीम
कुँदेदुँ सहस्त्र फुल्लाँवारीणीम श्री राम वामाँगे सुशोभीनीम
सूर्यवँशम माँ गायत्रीम राघवेन्द्र धर्म सँस्थापीनीम
श्री सीता देवी नमोस्तुते ! श्री राम वल्लभाय नमोनम:
हे अवध राज्य ~ लक्ष्मी नमोनम:
हे सीता देवी त्वँ नमोनम: नमोनम: ii
[ सीता जी के वर्णन से सँबन्धित श्लोक  /  मेरी कविता आप के सामने प्रस्तुत कर रही हूँ। ]
” ॐ नमो भगवते श्री नारायणाय “  - ” ऊं नमो भगवते वासुदेवाय “
[ ये सारे मन्त्र, अथर्व वेद में श्री राम रहस्य के अंतर्गत लिखे हुए हैं । ]
'जिस क्षण से देखा उजियारा 
  टूट गए रे तिमिर जाल 
  तार तार अभिलाषा टूटी 
  विस्मृत गहन तिमिर अन्धकार 
 निर्गुण बने, सगुण वे उस क्षण 
 शब्दों के बने सुगन्धित हार 
 सुमनहार अर्पित चरणों पर 
 समर्पित जीवन का तार तार ! ' 
-  लावण्या 
सच कहा है , 'सत्य निर्गुण है। वह जब अहिंसा, प्रेम, करुणा के रूप में अवतरित होता है तब सदगुण कहलाता है।' भारतीय गणराज्य का प्रतीक भी यही कहता है ,  सत्य की  विजय सर्वदा निश्चित है।  
'सत्यमेव जयते'मूलतः मुण्डक-उपनिषद का सर्वज्ञात मंत्र ३ .१ .६  है। 
पूर्ण मंत्र इस प्रकार है:
सत्यमेव जयते नानृतम सत्येन पंथा विततो देवयानः।
 येनाक्रमंत्यृषयो ह्याप्तकामो यत्र तत् सत्यस्य परमम् निधानम् ।
अर्थात अंततः सत्य की ही जय होती है न कि असत्य की। यही वह मार्ग है जिससे होकर आप्तकाम (जिनकी कामनाएं पूर्ण हो चुकी हों) मानव जीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्त करते हैं। 

'सत्यमेव जयते '
अगर हम मुक्ति की जगह सत्य को ढूंढे तो सबसे अच्छा होगा। क्योंकि सत्य के बिना अपने बुद्धि और भावना से मुक्ति शब्द को परिभाषित करे तो वह सही न होगा। एक समय की बात है जब भारत में श्वेतकेतु नामक युवक रहता था । उसके पिता उद्दालक थे। उन्होंने एक दिन प्रश्न किया, "क्या तुम्हे रहस्य ज्ञात है ? जिस प्रकार सुवर्ण के एक कण की पहचान से समस्त वस्तुएं जो सुवर्ण से बनी हों उनका ज्ञान हो जाता है भले ही नाम अलग हों, आकार या रूप रेखा अलग हों।  सुवर्ण फ़िर भी सुवर्ण ही रहता है। यही ज्ञान अन्य धातुओं के बारे में भी प्राप्त होता है। यही सत्य का  ज्ञान है ।
उद्दालक , अरुणा के पुत्र ने ऐसा प्रश्न अपने पुत्र श्वेतकेतु से किया। 
उद्दालक : "पुत्र, जब हम निद्रा अवस्था में होते हैं तब हम 
उस तत्त्व से जुड़ जाते हैं जो सभी का आधार है ! हम कहते हैं, अमुक व्यक्ति सो रहा है परन्तु उस समय वह व्यक्ति उस परम तत्त्व के आधीन होता है । पालतू पक्षी हर दिशा में पंख फडफडा कर उड़ता है आख़िर थक कर, पुन: अपने स्थान पर आ कर, बैठता है । ठीक इसी तरह, हमारा मन, हर दिशा में भाग लेने के पश्चात्  अपने जीवन रुपी ठिकाने पर आकर पुनः बैठ जाता है।  जीवन ही व्यक्ति का सत्य है। 
मधुमखियाँ मध् बनाती हैं। विविध प्रकार के फूलों से वे मधु एकत्रित करतीं हैं जब उनका संचय होता है तब समस्त मधु मिल जाता है और एक रस हो जाता है। इस मधु में अलग अलग फूलों की सुगंध या स्वाद का पहचानना तब कठिन हो जाता है। बिल्कुल इसी प्रकार हर आत्मा जिसका वास व्यक्ति के भीतर सूक्ष्म रूप से रहता है।  अंततः परम आत्मा में मिलकर , विलीन हो कर, एक रूप होते हैं ।  शेर , बाघ, भालू, कीट , पतंगा, मच्छर, भृँग, मनुष्य सभी जीव एक में समा जाते हैं !  किसी को इस ज्ञान का सत्य , विदित होता है, अन्यों को नहीं !  वही परमात्मा बीज रूप हैं बाकी सभी उसी के उपजाए विविध भाव हैं ! वही एक सत्य है - वही आत्मा है - हे पुत्र श्वेतकेतु, वही सत्य तुम स्वयं हो ! 
तत्` त्वम्` असि ! 

नाम : लावण्या दीपक शाह 

'कॉफी विथ कुश '

$
0
0
'कॉफी विथ कुश '
[ कुश जी हिन्दी ब्लॉगर हैं और राजस्थान के निवासी हैं। 'कॉफी विथ करण जौहर 'की तर्ज़ पर, हिन्दी ब्लॉगरों का इंटरव्यू ले कर ' 
कुश ने एक नई श्रृंखला आरम्भ की थी। कुछ वर्ष पूर्व कॉफी विथ कुश ' में हम भी बुलाये गए थे। पेश हैं कुश के प्रश्न और लावण्या शाह के उत्तर !]
Q. कैसा लग रहा है आपको यहा आकर ? 
   A. जयपुर के गुलाबी शहर मेँ , हम ,कुश जी के सँग, कोफी पी रहे हैँ ..तो "सेलेब्रिटी 'जैसा ही लग रहा है जी !
   आपसे रुबरु होने का मौका मिला है ~ शुक्रिया !
Q. सबसे पहले तो ये बताइए ब्लॉग्गिंग में कैसे आना हुआ आपका ?
  A. " Blogging " is like "sitting in the  " Piolet's Seat .. &  flying the plain solo ..
         मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ -
       एक दिन रात का भोजन, निपटा कर , मैँ ,  कम्प्युटर पर सर्फ़ कर रही थी और गुगल पे ' ब्लोग 'बनाने की सूचनाएँ पढते हुए
        मैँने मेरा प्रथम ब्लोग "अन्तर्मन "   बना दिया।  वह पहला 'ब्लॉग '  अँग्रेज़ी मेँ था। और तभी से ,"सोलो प्लेन" समझिये,
           "इन ट्रेँनीँग" - सीखते हुए, चला रहे हैँ :-)
        Q.  हिन्दी ब्लॉग जगत में किसे पढ़ना पसंद करती है आप ?
       A. मैँने प्रयास किया था इस पोस्ट मेँ कि जितने भी जाल घरोँ का नाम एकत्रित करके यहाँ दे सकूँ - वैसा  करूँ -
    अब कोई नाम अगर रह गया हो तो क्षमा करियेगा।  पर मुझे सभी का लिखा पसँद है सिवा उसके
    जो पढनेवाले का दिल दुखा जाये ~ बाकि कई नये ब्लोग पर रोचक और ज्ञानवर्धक सामग्री भी मिल ही जातीँ हैँ। 
    सभी को मेरी सच्चे ह्र्दय से , शुभ कामनाएँ दे रही हूँ।  स्वीकारियेगा !
     कृपया, ये लिन्कॅ देखेँ ~
Q. हिन्दी ब्लॉग जगत की क्या खास बात लगी आपको ?
  A. हिन्दी ब्लोग जगत मेरे भारत की माटी से जुडा हुआ है।  कई सतहोँ पर! जहाँ आपको मनोरँजन भी मिलेगा, ज्ञानपूर्ण बातेँ भी, राजनीति से      लेकर, शब्दोँ की व्युत्त्पति या खगोल शास्त्र, पर्यटन, सदाबहार नगमे, या नये गीत, एक से एक बढकर गज़ल, शायरी, गीत और नज़्म, व्यँग्य, विचारोत्तेजक लेख etc एक छोटे से कस्बे मेँ जीता भारत या विदेश का कोई कोना,  यादेँ, सँस्मरण ,  सभी कुछ पढने को मिल जाता है। 
जो नावीन्य से भरपूर होता है।  जिसका मूल कारण है व्यक्ति की स्वतँत्रता और अनुभवोँ को दर्शाने की आज़ादी ! जिसे सामाजिक स्वतंत्रता के तहत हम अंग्रेज़ी में कहें तो ' Freedom of expression 'है। यह एक लोकताँत्रिक विधा है।  यही ब्लोग की प्राण शक्ति है और उस मेँ समायी उर्जा है। 
Q. क्या आप किसी कम्यूनिटी ब्लॉग  भी लिखती है?
   A.  नहीँ तो ...ये अफवाह किसने उडायी ? :)
Q. आपके बचपन की कोई बात जो अभी तक याद हो ?
   A. हुम्म्म ................. मैँ बम्बई पहुँच गई हूँ......
       खयालो के धुन्ध मेँ, दीखलाई देती है ३ साल की एक नन्ही लडकी , शिवाजी पार्क की भीड भाड मेँ , शाम के धुँधलके मेँ ! अब लोग घर वापस    जाने के लिये, पार्क के दरवाजोँ से बाहर यातायात के व्यस्त वाहनोँ के बीच से रास्ता ढूँढते निकल लिये हैँ और ये लडकी , अपने आपको अकेला,   असहाय पाती है।  घर का नौकर शम्भु, भाई बहनोँ को लेकर, कहीँ भीड मेँ ओझल हो गया है और अपने को अकेला पाकर, जीवन मेँ पहली बार
 बच्ची को डर का अहसास हुआ है।  पूरी शक्ति लगाकर इधर उधर देखते हुए बिजली की खँभा दीखाई पडता है उसी को अपने नन्हे हाथोँ को फैला,
   कस के पकड लेते ही आँखोँ मेँ आँसू आ जाते हैँ और उसे देख,  २ नवयुवक ठिठक कर रुक जाते हैँ और पूछते है, 
    "बेबी, क्या तुम घूम गई हो ?  अकेली क्यूँ हो ? " थर्र्राते स्वर मेँ, अपनी ढोडी उपर किये स्वाभिमान से उत्तर देती हुई वो कहती है,
        "मैँ नहीँ हमारा शम्भु भाई घूम गया है ! "  और वह  ३ बरस की नन्ही कन्या, मैँ ही थी :-)
     ईश्वर कृपा से वे दोनोँ युवक, मेरे रास्ता बताने से , मुझे घर तक छोड गये और दरवाजा खुलते ही,
     "अम्मा .."की पुकार करते ही अम्मा की गोद मेँ , मैँ फिर सुरक्षित थी !
     और उन दोनोँ युवकोँ ने, अम्मा को,  खूब डाँटा था और अम्मा ने उनसे माफी माँगते खूब अहसान जताया था। 
    आज सोचती हूँ अगर मैँ घर ना पहुँची होती तो ?!
 Q. कॉलेज के दिनो की कोई बात ?
    A. आहा ...यौवन के दिन भी क्या दिन होते हैँ !! भविष्य का रास्ता, आगे इँद्रधनुष सा सतरँगी दीखलाई देता है। 
    - अजाना, अनदेखा, अनछुआ -- रोमाँच मिश्रित भय से और आशा की किरणोँ से लिपटा, नर्म बादलोँ की गाडी मेँ बैठे, दुनिया की सैर करने को     उध्यत!  एक नये अहसास को हर रोज सामने ले आनेवाला समय,  जो हर किसी के जीवन मेँ ऐसे आता है कि जब तक कि कोई उसको परखेँ, वो बीत    भी जाता है ! अगर बचपन के दिन सुबह हैँ तो कोलिज के दिन मध्याह्न हैँ। 
   एक दिन कोलिज मेँ अफघानिस्तान से आये एक शख्स ' नूर महम्मद 'ने मेरी सहेली रुपा के लिये, दूसरे लडके को, कोलेज के बाहर सडक पर,
  चाकू से घायल कर लहू लुहान कर दिया था।  हम लडकियाँ सहम गईँ थीँ। इस का असर ये हुआ कि घर गई तब १०१ * ताप ने मुझे आ घेरा !
                       दूसरे दिन एक मित्र जिसका नाम अनिल था और वो सबसे सुँदर था। उसका दोस्त आया और बतलाया कि अनिल ने खुदकुशी कर ली !
  शायद उसके पर्चे ठीक नहीँ गये थे और फेल होने की आशँका से उसने ऐसा कदम उठाया था।  ये दोनोँ किस्से मुझे आज तक भूलाये नहीँ भूलते !
 युवावस्था और कॉलेज के दिन अब बीत गए परन्तु  कविता में यादें शेष हैं।  'वह कॉलेज के दिन 'कविता का लिंक ~ 
Q. जीवन की कोई अविस्मरणिय घटना ?
   A. मेरी पहली सँतान बिटिया सिँदुर का ९ वाँ महीना चल रहा था।  उसे हमने शाम के खाने पे बुलाया तो वो सेल फोन से नर्स को पूछ रही थी 
   "क्या मैँ मेरा फेवरीट शो देखने के बाद वहाँ आ सकती हूँ ? " नर्स ने कहा "नहीँ जी, फौरन आओ" !
         दूसरे दिन हम भी वहाँ गये उसे लेबर पेन चल रहा था और मैँ प्रभु नाम स्मरण करते जाप कर रही थी।  मन मेँ एक डर था कि अभी नर्स     या डाक्टर आकर कहेँगेँ कि हम इसे ओपरेशन के लिये ले जा रहे हैँ। परँतु, सुखद आश्चर्य हुआ जब हेड नर्स ने हम से कहा, 
   "आप लोग बाहर प्रतीक्षा कीजिये। अब समय हो रहा है " हम बाहर गये और मानोँ कुछ पल  मुस्कुराती हुई वो लौट आई और कहा 
    "अब आप लोग आ सकते हैँ " भीतर सिँदुर थी और मेरा नाती "नोआ"=  Noah  था। उस सध्यस्नात,  नवजात शिशुको हाथोँ मेँ उठाया तो वह     पल मुझे मेरे जीवन का सबसे अविस्मरीणीय पल लगा। 
 Q. अपने परिवार के बारे में बताइए  ?
   A. मेरे परिवार मेँ हैँ , मेरी बिटिया सिँदुर, दामाद ब्रायन, नाती नोआ और बेटा सोपान और बहु मोनिका देव मेरे पति दीपक और मैँ !
 Q. ब्लॉगिंग से जुड़ा कोई दिलचस्प अनुभव ?
   A .  हम जब ब्लोगिँग करते हैँ तब निताँत एकाँत मेँ, अपने विचारोँ को Key Board / की बोर्ड के जरिये ,
       खाली पन्ने पे उजागर करते हैँ।  उसके बाद आपका लिखा कौन , कहाँ पढता है इस पे आपका कोई अधिकार नहीँ। 
      इस नजर से ये सर्व जन हिताय हो गया। - एक पोस्ट श्रध्धेय अमृतलाल नागर जी ( मशहूर कथाकार हैँ ) 
    उन के पापाजी पे लिखे सँस्मरण को पोस्ट करने से पहले, उन पे नेट पर सामग्री ढूँढते , "रीचा नागर"के बारे मेँ पता चला। 
       और सँपर्क हुआ जिसकी खुशी है। रिचा साहित्यकार श्री अमृतलाल नागर जी की धेवती है। 
   और कवि प्रदीपजी वाली पोस्ट को उनकी बिटिया ने पढकर मुझे ई मेल से संपर्क किया था उसकी भी खुशी है। 
Q आप ही की लिखी हुई आपकी कोई पसंदीदा रचना ?
   Aसुनिये ~~
 रात कहती बात प्रियतम,
  तुम भी हमारी बात सुन लो,
थक गये हो, जानती हूँ,
प्रेम के अधिकार गुन लो !
है रात की बेला सुहानी,
इस धरा पर मनुज की,
नीँद से बोझिल हैँ नैना,
नमन मैँ प्रभु,नुज की,!
रात कहती है कहानी,
थी स्वर्ग की शीतल कली,
छोड जिसको आ गये थे-
उस पुरानी - सखी की !

रात कहती बात प्रियतम !
तुम भी सुनो, मैँ भी सुनुँ !
हाथ का तकिया लगाये,
पास मैँ लेटी रहूँ !
 Q.  पसंदीदा फिल्म ? क्यो पसंद है ? 

A. "मुगल - ए - आज़म "  मेरी पसँदीदा फिल्म है।  मधुबाला दिलीप कुमार, पृथ्वीराज कपूर दुर्गा खोटे और अन्य सभी सह कलाकारोँ का उत्कृष्ट अभिनय, नौशाद साहब का सुमधुर , लाजवाब सँगीत और एक से बढकर एक सारे गाने, वैभवशाली चित्राँकन, कथा की नायिका की मासूमियत और खूबसुरती जो उसके जीवन का अभिशाप बन गई और अनारकली का त्याग ! प्रेम के लिये आत्म समर्पण !  बहुत सशक्त भावोँ को जगाते हैँ। 
बस्स वही सब पसँद है ~~
Q. पसंदीदा पुस्तक ? क्यो पसंद है ?
 A. वैसे तो लम्बी लिस्ट है ..पर सच मेँ "सुँदर काँड "मेँ चमत्कारी शक्ति है ! हनुमान जी का सीता मैया को राक्षस राजा रावण की 
अशोक वाटीका मेँ खोजना और पाप का नाश और सत्य पर विजय हमेशा नई आशा का सँचार करता है ~
 और एक पुस्तक है "शेष - अशेष "मेरे पापाजी पर बहुत सारे सँस्मरणात्मक लेखवाली ..
 उसे पढते समय , अक्सर, पढ़ते हुए बीच में छोड देती हूँ क्यूँकि ..आँसू आ ही जाते हैँ उनकी और अम्मा की यादेँ तीव्र हो उठतीँ हैँ। 
 Q. अपनी बीती हुई ज़िंदगी में अगर कुछ बदलने का मौका मिले तो क्या बदलना चाहेंगे आप ? 
 A. कोई ऐसा मौका हाथ से जाने नहीँ दूँगीँ जब , किसी दुखी या लाचार और हताश मानव के लिये कुछ कर ना पायी ...
आज आप हँस बोल लो , कल क्या हो किसे पता है ?
 Q. ब्लॉगिंग के लिए इतना वक्त कैसे निकाल पाती है आप
 A. घर के काम शीघ्रता से करने की आदत हो गई है अब और काफी समय , जितना वक्त है उसे , सही तरीके से
 उपयोग मेँ लाने की कोशिश करती हूँ और हाँ, यहाँ ( अमेरिका मेँ ) बिजली कम ही जाती है :-)
घर मेँ , आधुनिक उपकरण ही ज्यादातर काम पूरा करते हैँ .. पर,  खाना, अब भी ,  मैँ ही बनाती हूँ ! क्यूँके ,
अभी ऐसा कोई "रोबोट= यँत्र मानव "मिला ही नहीँ !! :-))
 Q. बचपन में कितनी शरारती थे आप ? कोई शरारत ? 
A. जी हाँ शरारती तो थी ही, छोटे भाई बहनोँ को कहानी सुनाती तो बाँध कर एक जगह पे बैठाये रखती थी :) 
हमारे सामने एक आँटीजी आग्रा से रहने बम्बई आयीँ थीँ।  वे रोज ही सिनेमा देखने चल देतीँ थीँ हम लोग उन्हेँ "ठमको आँटी "प्राइवेट मेँ बुलाते थे ना जाने एक दिन क्या सूझी कि उनके घर कुँकु से लिपटा नारीयल, फूल और डाकू भैँरोँ सिँह के नामवाली चिठ्ठी  छोड  आये ... 
खत का मजमूँ था ...."घर मेँ रहा करो नहीँ तो तुम्हारे जान की खैर नहीँ ! "
आँटीजी ने पुलिस बुलवाने का उपक्रम किया तब जाकर अम्मा के सामने डाकूओँ ने आत्म समर्पण कर दिया था !! 
 एक और बात याद है बचपन के दिनों की - ओलिम्पिक खेल की मशाल की देखा देखी, सारे मित्रोँ को पेन्सिल पकडावा के बाग के बीच लगे पीले गेँदे के फूलोँ की क्यारियोँ के इर्दगिर्द , कई सारे चक्कर लगवाये थे हम गा रहे थे, "मेरे इरदगिर्द शागिर्द "....
और उन सब को कहना होता था,  " अग्नि गोल  ..अग्नि गोल "
कुछ देर बाद सब ने कहा " ये कैसी रेस है जी जहाँ गोल घूमते पसीने से तर हमेँ कोई मेडल भी नहीँ मिल रहा " ...
आज बरसोँ बाद ये शैतानियाँ याद आयी और  नादानियोँ पे हँसी आ रही है ~~ 

छन्द और वैदिक काल

$
0
0

छन्द और वैदिक काल



 श्री गुरुदत्तजी की लिखी एक पुस्तक है  –” वेद और वैदिक काल ” उसमेँ  छन्द क्या थे ? 'इस पर उन्होंने प्रकाश डाला है । 
” कासीत्प्रमा प्रतिमा किँ निदानमाज्यँ किमासीत्परिधि: 
क आसीत्` छन्द: किमासीत्प्रौगँ किँमुक्यँ यद्देवा देवमजयन्त विश्वे ” 
जब सम्पूर्ण देवता परमात्मा का यजन करते हैं तब उनका  स्वरुप क्या था ?
 इस निर्धारण और निर्माण मेँ क्या पदार्थ थे ? उसका घेरा कितना बडा था ? 
वे छन्द क्या थे जो गाये जा रहे थे ? वेद इस पूर्ण जगत का ही वर्णन करते हैँ । 
कहा है कि, जब इस जगत के दिव्य पदार्थ बने तो छन्द उच्चारण करने लगे। 
 वे ” छन्द ” क्या थे?
” अग्नेगार्यत्र्यभवत्सुर्वोविष्णिहया सविता सँ बभूव अनुष्टुभा 
सोम उक्थैर्महस्वान्बृहस्पतयेबृँहती वाचमावत् विराण्मित्रावरुणयोरभिश्रीरिन्द्रस्य 
त्रिष्टुबिह भागो अह्ण्: विश्वान्देवाञगत्या विवेश तेन चाक्लृप्र ऋषयो मनुष्या: “  ऋ: १० -१३० -४, ५
                                       अर्थात उस समय अग्नि के साथ गायत्री छन्द का सम्बन्ध उत्पन्न हुआ। उष्णिता से सविता का और 
ओजसवी सोम से अनुष्टुप व बृहसपति से बृहती छन्द आये। विराट छन्द , मित्र व वरुण से, दिन के समय, त्रिष्टुप इन्द्रस्य का विश्वान्देवान से 
सन्पूर्ण देवताओँ का जगती छन्द व्याप्त हुआ । उन छन्दोँ से ऋषि व मनुष्य ज्ञानवान हुए जिन्हे ” यज्ञे जाते” कहा है।  
 यह सृष्टि रचना के साथ उत्पन्न होने से उन्हेँ ” अमैथुनीक ” कहा गया है।
                                इस प्रकार वेद के ७ छन्द हैँ शेष उनके उपछन्द हैँ। उच्चारण करनेवाले तो  देवता थे परन्तु वे मात्र सहयोग दे रहे थे।  
तब प्रश्न उठता है सहयोग किसे दे रहे थे  ? उत्तर है,  परमात्मा को ! 
                      उनके समस्त सृजन को ! ठीक उसी तरह जैसे, हमारा मुख व गले के “स्वर  यन्त्र ” आत्मा के कहे शब्द उच्चारते हैँ 
 उसी तरह परमात्मा के आदेश पर देवताओँने छन्दोँ का उच्चारण किया।
             जिसे सभी प्राणी भी तद्पश्चात बोलने लगे व हर्षोत्पाद्क अन्न व उर्जा को प्राप्त करने लगे। इस वाणी को ” राष्ट्री ” कहा गया। 

 जो शक्ति के समान सब दिशा मेँ , छन्द – रश्मियोँ की तरह तरलता लिये फैल गई । राष्ट्री वाणी तक्षती, एकपदी, द्विपदी, चतुष्पदी, अष्टापदी, नवपदी रूप पदोँ मेँ कट कट कर आयी।  अब प्रश्न  है कहाँ से आयी ये दिव्य वाणी  ? तो उत्तर है , वे सहस्त्राक्षरा परमे व्योमान् से ही आविर्भूत हुईं।

(साभार – लावण्या दीपक शाह)

सुश्री देवी नागरानी जी

$
0
0
ॐ 
आदरणीया देवी नागरानी जी मेरी बड़ी बहन हैं। वे एक बेहतरीन रचनाकार , ग़ज़लगो , कहानीकार , अनुवादक और एक सजग समर्पित साहित्यकार एवं भारतीय भी हैं यह उनकी बहुमुखी प्रतिभा का मिलाजुला स्वरूप है।  बड़ी हैं और साहित्य मर्मज्ञ भी इस कारण वे मेरे लिए सदैव प्रेरणा का स्त्रोत रहीं हैं। यह  उनके स्नेह से आगे चलकर और अधिक सिंचित व पल्ल्वित हुआ।  
 अब बीते दिनों को याद करूँ तो, उनसे मेरी सर्व प्रथम मुलाक़ात, विश्व प्रसिद्ध संस्था यूनाइटेड नेशनसँ के मुख्य सभागार, न्यू यॉर्क शहर में आयोजित अष्ठम हिन्दी अधिवेशन के दौरान हुई थी। पूज्य देवी जी को सामने से चलकर आते हुए देखा ,  उन का लिखा बरबस आँखों के सामने कौंध उठा। 
 “न बुझा सकेंगी ये आंधियां ये चराग़े‍‍ दिल है दिया नहीं” 
    और 
दर्दे दिल की लौ ने रौशन कर दिया सारा जहाँ  
इक अंधेरे में चमक उट्ठी कि जैसे बिजिलियाँ  "       लौ दर्दे दिल की 'देवी बहन का प्रथम ग़ज़ल संग्रह है।
डा मृदुल कीर्ति जी सुश्री देवी नागरानी जी के लिए कहतीं हैं ,
लौ दर्दे – दिल की '
शब्द सादे भाव गहरे,  काव्य की गरिमा मही,
‘लौ दर्दे दिल की’ संकलित, गजलों में ‘देवी’ ने कही
न कोई आडम्बर कहीं, बस बात कह दी सार की,
है पीर अंतस की कहीं,  पीड़ा कहीं संसार की.
आघात संघातों की पीड़ा, मर्म में उतरीं घनी, उसी आहत पीर से ‘लौ दर्दे-दिल की’ गजलें बनीं .
जीवन-दर्शन को इतनी सहजता और सरलता से कहा जा सकता है, यह ‘देवी’ जी की लेखन शैली से ही जाना. जैसे किसी बच्चे ने कागज़ की नाव इस किनारे डाली हो और वह लहरों को अपनी बात सुनाती हुई उस पार चली गयी हो. कहीं कोई पांडित्य पूर्ण भाषा नहीं पर भाव में पांडित्य पूर्ण संदेशं हैं. क्लिष्ट भावों की क्लिष्टता नहीं तो लगता है, मेरे अपने ही पीर की बात हो रही है और मैं इन पंक्तियों में जीवंत हो जाती हूँ . जब पाठक स्वयं को उस भाव व्यंजना में समाहित कर लेता है, तब ही रचना में प्राण प्रतिष्ठा होती है.
देवी जी के ही शब्दों में —–
करती हैं रश्क झूम के सागर की मस्तियाँ
पतवार बिन भी पार थी कागज की कश्तियाँ .
यह  ‘ दर्दे दिल की लौ’  उजाला बनने को व्याकुल है , सबके दर्द समेट लेने चाहत ही किसी को सबका बनाती है,  परान्तः-सुखाय चिंतन ही तो परमार्थ की ओर वृतियों को ले जाती हैं और शुद्ध चिंतन ही चैतन्य तक जीव को ले जाता है. औरों के दर्द से द्रवित और उन्हें समेट लेने की चाह में ही,’ मालिक है कोई मजदूर कोई, बेफिक्र कोई मजबूर कोई.’ संवेदना कहती है ‘ बहता हुआ देखते है सिर्फ पसीना, देखी है कहाँ किसने गरीबों की उदासी’ . ठंडे चूल्हे रहे थे जिस घर के, उनसे पूछा गया कि पका क्या है’ यह सब पंक्तियाँ देवी जी के अंतस को उजागर करतीं हैं.  वे सारगर्भित  मान्यताओं  की भी पक्षधर है कि व्यक्ति  केवल अपने कर्मों से ही तो उंचा होता है. ‘ भले छोटा हो कद किरदार से इंसान ऊँचा हो, उसी का जिक्र यारों महफ़िलों में आम होता है’ .
जीवन के मूल सिद्धांतों के प्रति गहरी आस्था है, सब इनका पालन क्यों नहीं करते इसकी छटपटाहट है, साथ ही यथार्थ से भी गहरा परिचय रखतीं है तब ही तो लिख दिया 
‘ उसूलों पे चलना जो आसान होता,
जमीरों के सौदे यकीनन ना होते,
कसौटी पे पूरा यहाँ कौन ‘देवी ‘
 जो होते, तो क्यों आइने आज रोते’.
सामाजिक, सांप्रदायिक , न्यायिक  और  राजनैतिक दुर्दशा के प्रति आक्रोश है, धार्मिक मान्यताओं के प्रति उनके उदगार नमन के योग्य हैं.’ वहीँ है शिवाला, वहीँ एक मस्जिद , कहीं सर झुका है, कहीं दिल झुका है.’पुनः है जहॉं मंदिर वहीँ है पास में मस्जिद कोई , साथ ही गूंजी अजाने , शंख भी बजते रहे. न्यायिक व्यवस्था के प्रति आक्रोश है. तिजारत गवाहों की जब तक सलामत क्या इन्साफ कर पायेगी ये अदालत.
भारतीयता,  हिंदी  देश प्रेम, वतन और शहीदों के प्रति रोम-रोम से समर्पित भावनाएं उन्हें प्रणम्य बनाती है. " 
देवी नागरानी एक प्रबुद्ध व्यक्तित्व है, बुद्ध का अर्थ बोध गम्यता. इस मोड़ पर जब चिंतन वृत्ति आ जाती है तो सब कुछ आडम्बर हीन हो जाता है, भावों को सहजता से व्यक्त करना एक स्वभाव बन जाता है. कितनी सहजता है, ‘ यूँ तो पड़ाव आये गए लाख राह में, खेमे कभी भी  हमने लगाए नहीं कहीं’ . वे मानती हैं कि  अभिमान ठीक नहीं पर स्वाभिमान की पक्षधर हैं, ‘ नफरत से अगर बख्शे कोई, अमृत भी निगलना मुश्किल है , देवी शतरंज है ये दुनिया,  शह उससे पाना मुश्किल है’ 
- डा मृदुल कीिर्ति 
 फिर आगे , 'चराग़े दिल 'से देवी जी के ग़ज़लों की खुशबु गुलाब की पंखुड़ियों सी सारी साहित्य की दिशाओं को और फ़िज़ां को महकाने लगीं। देवी जी की एक और किताब  ' “चराग - दिल”  का भारतीय विदेश राज्य मंत्री श्री आँनंद शर्मा ने अपने हाथों से  ८ वें हिन्दी अधिवेशन में , विमोचन किया था।
लेखिका सुश्री इला प्रसाद जी के शब्दों में सुनिए ,
 'चरागे दिल देवी नांगरानी का हिन्दी में पहला ही गजल संग्रह है जिसके माध्यम से उन्होंने बतला दिया है कि उनकी लेखनी का चराग बरसों बरस जलता रहने वाला है। उनकी सोच का फ़लक विस्तृत है और उनकी गजलें जीवन के तमाम पहलुओं को छूती हैं। उन्होंने औरों के काँधों पर चढ़कर विकास नहीं किया। वे अपने पैरों से चली हैं , जिन्दगी की धूप – बारिश झेली है और आग में तप कर निकली हैं। उन्हीं के शब्दों में, "कोई नहीं था ‘देवी’ गर्दिश में मेरे साथ बस मैं, मिरा मुकद्दर और आसमान था। " जब जीवन-डगर कठिन हो और मन सम्वेदनशील, तो अभिव्यक्ति का ज़रिया वह खुद ढूढ़ लेता है। इस संग्रह में ढेरों ऐसी गजले हैं जो पाठकों को अपनी अनुभूतियों के करीब लगेंगी। आज चाहे देवी जी कहती हों कि “शोहरत को घर कभी भी हमारा नहीं मिला” 
- इला प्रसाद
अब सुनिए डा॰ अंजना संधीर का देवी जी के बारे में  ,
सिंधी का लहजा और मिठास उनकी जुबान में है। न्यूयॉर्क के सत्यनारायण मंदिर में कवि सम्मेलन- २००६  में अपने कोकिल कंठ से जब उन्होंने गजल सुनाई तो महफिल में सब वाह-वाह कर उठे। किसी की फरमाइश थी कि वे सिंधी की भी गजल सुनाएँ और तुरंत एक गजल का उन्होंने हिंदी अनुवाद पहले किया और सिंधी में उसे गाया। सब लोगों को देवी की गजल ने मोह लिया। तो ये थी मेरी देवी से रूबरू पहली मुलाकात। हमने एक दूसरे को देखा न था, बस बातचीत हुई थी। मेरी कविता पाठ के बाद वो उठकर आईं, मुझे गले लगाया और बोलीं- 
 'अंजना, मैं तुम्हें मिलने ही इस कवि सम्मेलन में आई हूँ।  ' 
 समर्पण, निर्मल मन, भाषा के लगाव का परिणाम आपके सामने है 'चिरागे दिल। 
 देवी आध्यात्मिक रास्तों पर चलने वाली एक शिक्षिका का मन रखने वाली कवयित्री हैं, इसलिए उनकी गजलों में सच्चाई और जिंदगी को खूबसूरत ढंग से देखने का एक अलग अंदाज है। उनकी लेखनी में एक सशक्त औरत दिखाई देती है जो तूफानों से लड़ने को तैयार है। गजल में नाजुकी पाई जाती है, उसका असर देवी की गजलों में दिखाई पड़ता है। उदाहरण के तौर पर देखिए-
 ‘भटके हैं तेरी याद में जाने कहाँ-कहाँ, तेरी नजर के सामने खोए कहाँ-कहाँ। "अथवा
 ‘न तुम आए न नींद आई निराशा भोर ले आई, 
तुम्हें सपने में कल देखा, उसी से आँख भर आई। " अथवा 
"उसे इश्क क्या है पता नहीं, कभी शमा पर वो जला नहीं। " 
‘देवी की गजलों में आशा है, जिंदगी से लड़ने की हिम्मत है व एक मर्म है जो दिल को छू लेता है। ' 
डा॰ अंजना संधीर   
Charage-Dil


श्री गणेश बिहारी “तर्ज़” लखनवी साहिब ने ‘चराग़े-दिल’ के लोकार्पण के समय श्रीमती देवी नागरानी जी के इस गज़ल-संग्रह से मुतासिर होकर बड़ी ही ख़ुशबयानी से उनकी शान में एक कत्ता स्वरूप नज़्म तरन्नुम में सुनाई थी। 

लफ्ज़ों की ये रानाई मुबारक तुम्हें देवी

रिंदी में पारसाई मुबारक तुम्हें देवी

फिर प्रज्वलित हुआ ‘चराग़े‍-दिल’ देवी

ये जशने रुनुमाई मुबारक तुम्हें देवी.

 अश्कों को तोड़ तोड़ के तुमने लिखी गज़ल

पत्थर के शहर में भी लिखी तुमने गज़ल

कि यूँ डूबकर लिखी के हुई बंदगी गज़ल

गज़लों की आशनाई मुबारक तुम्हें देवी

ये जशने रुनुमाई मुबारक तुम्हें देवी.

 शोलों को तुमने प्यार से शबनम बना दिया

एहसास की उड़ानों को संगम बना दिया

दो अक्षरों के ग्यान का आलम बना दिया

‘महरिष’ की रहनुमाई मुबारक तुम्हें देवी

ये जशने रुनुमाई मुबारक तुम्हें देवी.

- श्री गणेश बिहारी “तर्ज़” लखनवी

 देवी जी के ग़ज़ल संग्रह ,हिन्दुस्तानी और  सिंधी दोनों भाषाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। अंग्रेज़ी, हिन्दी, उर्दू  और सिंधी जैसी  सभी भाषाओं में देवी जी सिध्धहस्त हैं। वर्षों से सृजन प्रक्रिया में देवी जी व्यस्त रहीं हैं। इस वर्ष  दिनांक १२ अप्रैल, २०१४ को चाँदीबाई हिम्मतलाल मनसुखानी कॉलेज में देवी नागरानी के सिन्धी कहानी संग्रह अपनी धरती का लोकार्पण समारोह सम्पन्न हुआ।

13. Pahinji Dharti 

सुश्री देवी नागरानी के अनुदित कहानी संग्रह “बारिश की दुआ” में भारत के अनेक प्रान्तों से स्थापित १७  कहानीकरों की कहानियाँ हिन्दी से सिन्धी भाषा में अनुवाद की हुई हैं। पुस्तक का स्वरूप सिंधी अरबी लिपि में है।

Baarish Ki Dua दिनांक-रविवार ९  जून २०१३  सीता सिंधु भवन, सांताक्रूज, मुम्बई के एक भव्य समारोह में सुश्री देवी नागरानी के अनुदित कहानी संग्रह “बारिश की दुआ” का लोकार्पण संपन्न हुआ। 



अनेक साहित्यकारों पर देवी जी ने मार्मिक कथन लिखा है जैसे साथी स्व श्री मरीयम गज़ाला, 
स्व श्री महावीर जी तथा लंदनवासी  ग़ज़लकार श्री प्राण शर्मा ,पिंगलाचार्य श्री महरिष जी, 
श्री जीवतराम सेतपाल जी , सुश्री सुधा ढींगरा , डा अंजना संधीर इत्यादी। 
अपने साथी रचनाकारों की प्रशंशा में देवी जी मुखर रहीं हैं  और उनके साहित्यिक अवदान के प्रति देवी जी सदैव सचेत रहतीं हैं। 
           मुम्बई हो या अमरीका का पूर्व में बसा न्यू जर्सी शहर हो या मध्य अमरीका का शिकागो शहर हो या कि पश्चिम अमरीका कैलीफोर्निया का मिलटीपास शहर हो उन्होंने की साहित्य सभाओं में शिरकत करते हुए सफल यात्राएं संपन्न कीं हैं। 
 चित्र  में देवी जी व अन्य साहित्यकार  मिल्टीपास केलिफोर्निया में - 
Cali-1सुदूर नॉर्वे हो या गोवा रायपुर या  जयपुर ,अजमेर या अमदावाद , या फिर  बेलापुर हो या  तमिलनाडु  ! देवी जी ने विभिन्न मंचों से अपनी रचनाओं का स स्वर पाठ किया है और श्रोताओं और साहित्यकारों ने उन्हें सुना और सराहा है। लिंक http://sindhacademy.wordpress.com2013. april Ajmer
             अखिल भारत सिंधी बोली प्रचार सभा की और से देवी नागरानी जी की 'भजन - महिमा 'पुस्तक का लोकार्पण संत शिरोमणि युधिष्ठिर लाल जी हस्ते संपन्न हुआ। देवी जी गाती बहुत बढ़िया हैं।  भजन हों या गीत ग़ज़ल या कविता उनके स्वर में ढलकर हर रचना , श्रोताओं को मंत्रमुग्ध करतीं रहीं हैं और सभा में, वाहवाही लूट लेतीं हैं। उदाहरणार्थ , शुक्रवार दिनांक ९  नवम्बर २०१२ , रवीद्र भवन मडगांव, गोवा में ‘अस्मिता’ कार्यक्रम सुबह १०  बजे से दो बजे तक सफलता पूर्ण सम्पन्न हुआ वहां देवी नागरानी  जी ने (सिन्धी) भाषा का प्रतिनिधत्व किया। 
Sahity Setu Sanmaan
साहित्य सेतु सन्मान 
तमिलनाडू हिन्दी अकादमी एवं धर्ममूर्ति राव बहादुर कलवल कणन चेट्टि हिन्दू कॉलेज, चेन्नई के संयुक्त तत्वधान में आयोजित विश्व हिन्दी  दिवस एवं अकादमी के वर्षोत्सव का यह भव्य समारोह (१०  जनवरी २०१३  में देवी जी का सन्मान हुआ )  श्रीमती देवी नागरानी ग़ज़ल के विषय में ख्यालात कुछ इस तरह हैं -- 
  कुछ खुशी की किरणें, कुछ पिघलता दर्द आँख की पोर से बहता हुआ, कुछ शबनमी सी ताज़गी अहसासों में, तो कभी भँवर गुफा की गहराइयों से उठती उस गूँज को सुनने की तड़प मन में जब जाग उठती है तब कला का जन्म होता है।  सोच की भाषा बोलने लगती है, चलने लगती है, कभी कभी तो चीखने भी लगती है। यह कविता बस और कुछ नहीं, केवल मन के भाव प्रकट करने का माध्यम है, चाहे वह गीत हो या ग़ज़ल, रुबाई हो या कोई लेख, इन्हें शब्दों का लिबास पहना कर एक आकृति तैयार करते हैं जो हमारी सोच की उपज होती है। ” दर्दे दिल की लौ ने रौशन कर दिया सारा जहाँ, इक अंधेरे में चमक उट्ठी कि जैसे बिजिलियाँ "
रचनाकार देवी जी के कहानी संग्रह संस्कार सारथी संस्थान ट्रस्ट, राज॰ के तत्वधान में पुस्तक लोकार्पन एवं साहित्यकार सन्मान समारोह में  सन्मान   समारोह में  दिनांक-मंगलवार, १२  मार्च २०१३  गांधी शांति प्रतिष्ठान में एक भाव्य समारोह को अंजाम दिया गया।  सुश्री देवी नागरानी के अनुदित कहानी संग्रह “और मैं बड़ी हो गई” का लोकार्पण संपन हुआ  और अक्षर शिल्पी सन्मान से उन्हें नवाजा गया।
     साहित्य के प्रति देवी नागरानी जी के विविध आयामी  योगदान को देखते हुए  सं २०१४ इसी वर्ष दिनांक रविवार ३१  अगस्त २०१४  अखिल भारत सिंधी बोली एवं साहित्य प्रचार की ओर से ११२  सेमिनार -“साहित्य व साहित्यकार "के तहत , जानी मानी नामवर लेखिका व शायरा देवी नागरानी पर यह सेमिनार आयोजित हुआ।
31 Ag-2014  
photo 4            
भारतीयता, साहित्यिक मनोभूमि, सर्व लोक उथ्थान के निर्मल भाव से ओतप्रोत देवी जी के उदगार सुनिए ,

'हमें अपनी हिंदी ज़ुबाँ चाहिये

सुनाए जो लोरी वो माँ चाहिये

कहा किसने सारा जहाँ चाहिये

हमें सिर्फ़ हिन्दोस्ताँ चाहिये

तिरंगा हमारा हो ऊँचा जहाँ

निगाहों में वो आसमाँ चाहिये

मुहब्बत के बहते हों धारे जहाँ

वतन ऐसा जन्नत निशाँ चाहुये

जहाँ देवी भाषा के महके सुमन

वो सुन्दर हमें गुलसिताँ चाहिये ' 

देवी जी के शब्दों में बसी तमाम उम्र भर की सच्चाई उनकी ग़ज़लों में यूं मुखरित हुई है , 

'यूं उसकी बेवफाई का मुझको गिला न था

इक मैं ही तो नहीं जिसे सब कुछ मिला ना था.

लिपटे हुए थे झूठ से कोई सच्चा न था

खोटे तमाम सिक्के थे, इक भी खरा न था ' 

देवी जी ने साहित्य की हरेक विधा में सृजन किया है। देवी जी का लिखा  एक सुन्दर हाइकु प्रस्तुत है , 'श्रम दिव्य है  , जीवन सुँदर ये , मंगल धाम '

 देवी जी ने साहित्यकार साथियों की पुस्तकों पर  सशक्त एवं निष्पक्ष समीक्षाएं भी लिखीं हैं। सामसायिक हिन्दी व अन्य साहित्य पर उनकी पैनी नज़र रहती है। यहां प्रस्तुत चित्र में अमेरिका के प्रवासी भारतीयों के हिन्दी साहित्य में हिन्दी कविता संगोष्ठी में अपना व्यक्तव्य पढ़ते हुए 

देवी जी~

Pravsi Sahity par alekh padhteडा अंजना संधीर द्वारा संपादित एवं प्रकाशित पुस्तक 'प्रवासिनी के बोल 'एक अनोखा प्रयास इस कारण रहा चूंकि इस पुस्तक में तमाम प्रवासिनी साहित्यकाराओं के उदगार संगृहीत हैं।  देवी जी ने इस पुस्तक में कई साथी रचनाकाराओं पर अपने विचार लिखे हैं।  मेरे लिए उनका लिखा मेरे मिए मनोबल को सुदृढ़ करनेवाला पाथेय है , बड़ी बहन के स्नेह रूपी वाक्यों का प्रसाद ही समझती हूँ। 
 ' हिन्दी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार पं॰ नरेंद्र शर्मा जी की सुपुत्री लावण्या शाह जो Cincinati-Ohio में रहती हैं। लावण्या जी को पढ़ते ही लगता है जैसे हम अपने आराध्य के सामने मंदिर में उपस्थित हुए हैं, सब कुछ अर्पित भावना को लेकर उनके साथ कह रहे हैं—-           
ज्योति का जो दीप से /मोती का जो सीप से /वही रिश्ता मेरा, तुम से !                   
 प्रणय का जो मीत से /स्वरों का जो गीत से /वही रिश्ता मेरा, तुम से !                             
 गुलाब का जो इत्र से /तूलिका का जो चित्र से /वही रिश्ता मेरा, तुम से !                          
 सागर का जो नैय्या से /पीपल का जो छैय्याँ से /वही रिश्ता मेरा, तुम से !      
- लावण्या शाह       
किसी ने खूब कहा है ‘कवि और शब्द का अटूट बंधन होता है, कवि के बिना शब्द तो हो सकते हैं, परंतु शब्द बिना कवि नहीं होता। लावण्या जी की शब्दावली का गणित देखिये कैसे सोच और शब्द का तालमेल बनाए रखता  है। '
- देवी नागरानी 
प्रवासिनी के बोल की समीक्षा पर अधिक विस्तार से  इस लिंक पर  : http://charagedil.wordpress.com/2012/03/
भारतीय भाषा संस्कृति संस्थान–गुजरात विध्यापीठ अहमदाबाद में देवी नागरानी का काव्य पाठ अवसर  
(संस्थान के निर्देशक श्री के॰ के॰ भास्करन, प्रोफेसर निसार अंसारी (Urdu Dept),
 मुख्य मेहमान देवी नागरानी, डॉ॰ अंजना संधीर)
न्यू जर्सी, अमेरिका की प्रवासी साहित्यकार देवी नागरानी को ग़ज़ल लेखन के लिए १६-१७ फरवरी को देश की महत्वपूर्ण साहित्यिक संस्था सृजन-सम्मान द्वारा 'सृजन-श्री ' से अलंकृत किया गया । उन्हें सम्मानित किया   धर्मयुग, नवभारत टाइम्स के पूर्व संपादक व वर्तमान में नवनीत के संपादक, विश्वनाथ सचदेव, वरिष्ठ आलोचक व प्रवासी साहित्य विशेषज्ञ कमलकिशोर गोयनका जी ने !  
 उत्तरप्रदेश के पूर्व विधानसभा अध्यक्ष व वरिष्ठ साहित्यकार केशरीनाथ त्रिपाठी दिनांक १३ मार्च, २०१० रविवार सिन्धी नव वर्ष “चेटी चाँद” के अवसर पर फिल्म “जय झूलेलाल” का उद्घाटन उत्सव एवं देवी नागरानी के सिन्धी काव्य संग्रह “मैं सिंध की पैदाइश हूँ ” का लोकार्पण समारोह संपन्न हुआ !"
सिंध की मैं पैदाइश हूँ  का विमोचन  नोर्वे में  ( Indo-Norwegian Informaion and Cultural फोरम) के मंच पर  स्वतंत्रता दिवस एवं टैगोर जयंती के मनाया गया। 
नार्वे की लेखक गोष्ठी में देवी नागरानी जी सम्मानित हुईं। 



 आप ये ना समझियेगा कि सुश्री देवी नागरानी जी की साहित्य यात्रा का रथ रूका है या थमा है।  आज भी देवी नागरानी के जहन में अनेक सुन्दर गीत , मधुर गज़लें और गीत लहरा रहे हैं और पाठकों को रसपान करवाने को आतुर हैं।  ऐसी कर्मठं साहित्य सेवी , मिलनसार तथा आज भी नया देखने, सुनने और समझने को सदा सजग रहतीं, मेरी बड़ी बहन सुश्री देवी नागरानी जी को मेरे स्नेह एवं अादर पूर्वक नमस्कार ! उनकी साहित्य सृजन प्रक्रिया अबाध गति से आगे बढ़ती रहे यह  मेरी विनम्र  शुभकामनाएं भी सहर्ष प्रेषित करती हूँ।  
 - श्रीमती लावण्या दीपक शाह 
  सिनसिनाटी , ओहायो प्रांत 
  उत्तर अमरीका 
ई मेल : Lavnis@gmail.com

आकर्षण करोति इति श्रीकृष्ण

$
0
0
ॐ 
हरी भक्ति गंगा 
~~~~~~~~~~~~~~~~
आकर्षण करोति इति श्री कृष्ण 
कालो वा कारणम राज्ञो 
नमो भगवते तस्मै 
नारायणं नमस्कृत्यम
नारायणं सुरगुरुं जग्देकनाथं 
सत्यम सत्यम पुन: सत्यम II
   वामन पुराण में महाविष्णु नारायण के स्वरूप का वर्णन है I ईश्वर के विविध आयुध जो वे सदैव ग्रहण किये रहते हैं उनमे से एक सुदर्शन चक्र भी है I इसे कालचक्र भी कहते हैं I सुदर्शन चक्र छ: नुकीले नोकों वाला तीक्ष्ण आयुध हैI जिसके छ : विभक्त भाग छ : ऋतुओं के द्योतक हैं I 
१२ निहित हिस्से १२ देवताओं, अग्नि, सोम, मित्र, वरुण इंद्र, इन्द्राग्नी, वायु, विश्वदेव, प्रजापति व धन्न्वंतरी इत्यादि का प्रतिनिधित्व करते हैं I चक्र का मध्य भाग वज्र धातु से बना है जिसके गुण हैं भृवि माने समता,
भग माने तेज, 
निर्देश माने गति और सम्पदा ! सुदर्शन चक्र की हर नोक पर "सहस्त्रात हुं फट "अक्षर लिखे हुए हैं I विभिन्न कोणों में नारी शक्तियों का निवास है जिसका वर्णन इस प्रकार है ..
१ ) योगिनि - शक्ति क्रिया जो परिपूर्ण है 
२ ) लक्ष्मी - लक्ष्य प्राप्ति की शक्ति जो परम सत्य का                    द्योतक है।  
३ ) नारायणी - सर्वत्र व्याप्त महाशक्ति 
४ ) मुर्धिनी - मस्तिष्क रेखा से रीढ़ की हड्डी तक व्याप्त शक्ति 
५ ) रंध्र - ऊर्जा की वह गति जो सूक्ष्मतर होती रहती है वह 
६ ) परिधि - 'न्र 'शक्ति का स्वरूप 
७ ) आदित्य - तेज जो कि प्रथम एवं अंतहीन है 
८ ) वारूणी -चतुर्दिक व्याप्त जल शक्ति जिस के कारण सुदर्शन की गति अबाध है 
९ ) जुहू - व्योम स्थित तारामंडल से निस्खलित अति सूक्ष्म , ज्योति शक्ति व गति 
१० ) इंद्र - सर्व शक्तिमान 
११ ) नारायणी - दिग्दिगंत तक फ़ैली हुई पराशक्ति ऊर्जा या कुंडलिनी शक्ति 
१२ ) नवढ़ा - नव नारायण , नव रंग, नव विधि की एकत्रित शक्ति  स्वरूप ऊर्जा 
१३ ) गंधी - जो पृथ्वी तत्व की भांति चलायमान है 
१४ ) महीश - महेश्वर में स्थित आदि शक्तियाँ 
Maha Sudarshan Jaap & Yagya

आकार : सुदर्शन चक्र का व्यास सम्पूर्ण ब्रह्मांड तक व्याप्त होकर उसे ढँक सकने में समर्थ है और इतना सूक्ष्म भी हो सकता है कि, वह एक तुलसी दल पर भी रखा जा सकता है I
सुदर्शन प्रयोग व् महत्ता  : 
१ ) गोवर्धन परबत उठाने के प्रसंग में श्री कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत के नीचे सुदर्शन चक्र को आधार बना कर रखा था I
२ )  शिशुपाल का वध इसी सुदर्शन चक्र से किया गया था I 
३ ) जयद्रथ वध के समय सुदर्शन चक्र का प्रयोग सूर्य को ढँक कर सूर्यास्त करने में हुआ था I

४ ) अर्जुन ने जो दीव्यास्त्र महाभारत युध्ध के समय प्रयुक्त कीये उन बाणों के घने आवरण को श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र  आधार देकर उन्हें अभेध्य कर दीये थे I 
५ ) राजा अम्बरीष पर दुर्वासा ऋषि क्रोधित हुए तब श्रीकृष्ण ने, विष्णु रूप से दुर्वासा ऋषि पर सुदर्शन चक्र से प्रहार किया था I 
६ ) नाथ सम्प्रदाय के परम तेजस्वी  महागुरु गोरखनाथ जी ने अपनी शक्ति से 
     सुदर्शन चक्र को स्तंभित कर दिया था I 
सामवेद में उल्लेख किया गया है कि, जब आहत और अनाहत ऊर्जा तरंगें 
एक साथ बहने लगतीं हैं उन्हें 'वासुदेव 'कहते हैं I 
श्रीकृष्ण : श्रावण अष्टमी को श्रीकृष्ण का प्रादुर्भाव हुआ था I श्री कृष्ण के मामा कंस ने अपनी बहन देवकी व जीजा वसुदेव जी को कारागार में कैद कर रखा था उसी काल कोठडी में आंठवें पुत्र रूप में परमात्मा नारायण ने या माहाविष्णु ने श्रीकृष्ण स्वरूप में आगमन किया था I 
राजा उग्रसेन व उनकी महारानी पवनकुमारी को एक दानव से कंस पैदा हुआ था I इस आसुरी सता का अन्य पापात्माओं सहित नाश करने के लिए ही ईश्वर का धरती पर पूर्ण अवतार रूप में एवं  जगत का उद्धार करने के लिए , संतों को सुख पहुंचाने के लिए, श्री हरि का  आगमन हुआ I  पिता वासुदेव  बाबा ने मध्य रात्रि में आंधी तूफ़ान और बरखा  बौछारों के बीच बालक कृष्ण को यमुना पार करवा कर नन्द जी  भारी ह्रदय से छोड़ दिया था। 
 
    महात्मा गर्ग ऋषि ने वासुदेव की दुसरी पत्नी रोहिणी व देवकी के पुत्रों का नामकरण किया I ज्येष्ठ भ्राता बलराम आदिशेष के अवतार हुए और नन्हे बाल कृष्ण ! रोहिणी जी व नवजात शिशुओं  को वासुदेव जी,  मध्य रात्रि में ही जन्म पश्चात , नन्द लाला जी व माता यशोदा जी के घर छोड़ आये थे I माता देवकी अपने पुत्र कृष्ण के वियोग में विलाप करतीं कारागृह में ही रहीं I नन्द बाबा का ग्राम जहां पवित्र  गौएं चरा करतें थीं वह भूभाग अति पवित्र  'व्रजभूमि 'कहलाता है I  व्रजभूमि में कयी दानवों के वध की अलौकिक कथा लीला श्रीकृष्ण द्वारा की गईं थीं I 
       श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं के प्रसंगों में से जो माताओं को अति प्रिय है वह है मिट्टी खाना ! 
जब मैया यशोदा ने श्री कृष्ण को मिट्टी खाते देखा तब हठात कान्हा का मुख खुलवाया उस समय श्रीकृष्ण के मुखमंडल में माता यशोदा सम्पूर्ण ब्रह्मांड को घूमता हुआ देखकर अवाक रह गईं और मूर्च्छित हो गईं थी I yashoda and little krishna
            एक और प्रसंग है जहां कंस ने अदभुत पराक्रमी बालक कृष्ण को पकड़ने के हेतु से अपने सैनिक व गुप्तचर भेजे थे तब बृज के कई  गोप बालकों  ने श्रीकृष्ण की तरह अपने शीश पर 'मयूरपंख 'धारण कर लिया ताकि गुप्तचरों को 'मयूर पंख धारी बाल कृष्ण 'की पहचान ही न होने पाए कि ,
 कृष्ण कौन है ! 
            अन्य प्रसंगों में श्रीकृष्ण का चाणूर को मुष्ठीयुध्ध द्वारा वध करने से वे 'चाणूर मर्दनम 'कहलाये हैं तथा आगे असुर वक्रदन्त को गदा युध्ध से हराने का भी उल्लेख है I  
     पूतना वध , तृणाव्रत का वध , दूध भरी मटकी की बैलगाड़ी को उलट देना , फल बेचनेवाली के फल लेकर माई को धान के कण देना जो रत्नों  में बदल गये थे, माखन चोरी कर माखन को गोप बालकों के संग बाँट कर खाना और जब गोपियाँ शिकायत लेकर माँ यशोदा के घर पहुंचतीं हैं तब बाल कृष्ण घर के भीतर से निर्दोष रूप में निकल कर आते हैं इत्यादी कई लीलाएं, बाल कृष्ण रूप में कान्हा ने कीं थीं और समस्त बृज वासियों को महाआनंद का  रस पान करवाया थाI 
           पावन यमुना जी  का जल श्रीकृष्ण के सानिंध्य से पवित्र हो उठा और कालिया मर्दन लीला कर कान्हा ने दूषित जल को स्वच्छ किया और प्रकृति के हर तत्त्व को निर्मल कर दिया थाI गोवर्धन परबत के नीचे ब्रज के नर नारियों को मूसलाधार वर्षा एवं इंद्र के कोप से रक्षा प्रदान कर श्री कृष्ण ने पर्यावरण की सुरक्षा का पाठ आधुनिक युग  से बहुत पहले ही समाज के सामने एक महत्वपूर्ण मुद्दे की तरह उपस्थित किया थाI 
            शाल और तोशाल को , कंस द्वारा शासित मथुरा नगरी में  मल्ल युध्ध में परास्त किया तब कंस ने वासुदेव व नन्द बाबा को कैद कर उनके वध का आदेश दिया और उसी समय श्रीकृष्ण ने कंस के राज सिंहासन पर कूद कर कंस पर प्राणान्तक प्रहार किया कंस की गर्दन मरोड़ कर , कार्तिक शुक्ल दसमी के दिवस क्रूर आत्मा कंस  का वध किया था I कंस के नौ लघु भ्राताओं ने कृष्ण बलराम पर हमला किया परंतु उन्हें भी मृत्यु प्राप्त हुईI  
       कंस वध पश्चात , राजा उग्रसेन को पुनह मथुरा नरेश बनाया गया और माँ देवकी व वासुदेव जी को मुक्त किया गया उस समय श्रीकृष्ण १८ वर्ष के थे I
           गर्गाचार्य ने श्रीकृष्ण - बलराम का यज्ञोपवीत संस्कार संपन्न कियाI तद्पश्चात उन्हें ऋषि सांदीपनी कश्यप के आश्रम में विद्याभ्यास के लिए प्रस्थान करते देख कर माता देवकी और यशोदा मैया के नयनों में अश्रु का ज्वार उमडा था I 
      सांदीपनी ऋषि ने धनुर्विद्या , वेदाभ्यास, धर्म, नीति शास्त्र  की शिक्षा से उन्हें पारंगत किया और श्रीकृष्ण ने कई नये आयुधों  की रचना भी  वहीं आश्रम में की थी जिसमे 'सुदर्शन चक्र 'भी है I
         ऋषि पुत्र पूर्णदत्त का अपहरण होने पर और नाग वंश की कुंवरी से विवाहित होने पर सांदीपनी उदास रहने लगे तब श्रीकृष्ण ऋषि पुत्र को आश्रम लौटा लाये और गुरु देव को प्रसन्न किया था I 
     वासुदेव जी के भाई देवभागा के पुत्र थे उद्धव !  जो कृष्ण के अनन्य सखा थे I मगध नरेश जरासंध ने अपने दामाद कंस की मृत्यु का बदला लेने, मथुरा पर आक्रमण किया तब यशोदा माई व गोप गोपियों की कुशल पूछने के लिए उद्धव को कृष्ण द्वारा, वृन्दावन  भेजा गया था I 
        दूसरी ओर अक्रूर जी को विदुर व मौसी कुंती  के पुत्र पांच पांडवों के कुशल क्षेम के लिए हस्तिनापुर भेजा गया था और धृतराष्ट्र ने अक्रूर जी को बतलाया कि वे कौरवों को मनमानी करने से रोक नहीं पाते हैंI इसी घटनाओं के आगे महाभारत की गाथा भी श्री कृष्ण के संग आगे बढती हैI महासमर के आरम्भ से पूर्व श्री कृष्ण ने अभूतपूर्व 'गीता ज्ञान 'दे कर अपने प्रिय सखा अर्जुन को 'कर्म का मर्म 'समझाया था और अंत में 'विराट स्वरूप 'के दर्शन दे कर स्वयं के ईश्वरतत्व की पुष्टी की थी I जय जय श्री कृष्ण ! 
Krishna and Arjuna at the Battlefield of Kurukshetra
- लावण्या  दीपक शाह 

मोगरे के फूल पर थी चांदनी सोई हुई

$
0
0
null

मोगरे के फूल पर थी चांदनी सोई हुई 
रूठ कर रात बन्नो भी नींद में खोई हुई 

उसने कहा था 'आ जाऊंगा ईद को  
माहताब जी भर देखूंगा, कसम से।'
 फीकी रह गई ईद, हाय, वो न आये 
सूनी  हवेली,सिवईयें  रह गईं अनछुई !

नई दुल्हन का सिंगार फीका बोझिल गलहार  
डूबते आफताब सी वीरां,फीकी, ईद की साँझ। 
अश्क सूखे इंतज़ार करते नैन दीप अकुलाए थे 
मोगरे के फूल पर सोई हुई थी चांदनी उस रात !
- लावण्या 

नोर्थ केरोलाईना, साउथ कैरोलाईना : यात्रा / भाग - १

$
0
0
 यात्रा : नोर्थ केरोलाईना, साउथ कैरोलाईना : भाग - १ 
अमरीका के पहले कभी न देखे हुए प्रांत नोर्थ केरोलाईना  और साउथ कैरोलाइना को देखा। अटलांटिक महासागर के किनारे ~~ 

 साउथ कैरोलाईना और नार्थ कैरोलाइना प्रांत की यात्रा पर हम २९ लोग अपनी अपनी गाड़ी से अमरीका की दक्षिण पूर्वीय दिशा में बसे इलाके की और बढ़ते जा रहे थे। मेरे पति दीपक जी की मित्र मंडली के सारे साथी  एवं उनके परिवार के सदस्य हमारे  संग थे। ये सभी मित्र हर इतवार को टेनिस खेलते हैं।  एक बार इन्होने सुझाया कि 'क्यों न हम लोग इकठ्ठे यात्रा पर चलें ? 'जब सब ने सहमति जताई की अब की गर्मियों की छुट्टी होगी तब अवश्य जायेंगें तो यात्रा का कार्यक्रम निश्चित हो गया। तो बस , उन्हीं सब के संग हम लोग यहां आये हुए थे।
इस ग्रूप में  ३, या ४ डाकटर हैं और सभी, उच्च शिक्षा प्राप्त नौकरीपेशा लोग हैं।                                        अधिकाँश दक्षिण भारत के भिन्न भिन्न प्रांतों से हैं ! कोई बेंगलूर से है तो कोई चैन्नई से ! कोई विशाखापटटनम से तो कोई पॉन्डिचेरी से ! कोई तिरुपत्तनम से तो कोई त्रिवेंद्रम से तो कोई केरल से है ! इनमे से कुछ 'हिन्दी भाषा 'बोल , समझ लेते हैं और कुछ बिलकुल नहीं जानते !इसी तरह , अमरीका में भारत के हरेक इलाके से आया व्यक्ति आपको मिल जाएगा। 

               हम जहां रहते हैं उस ओहायो प्रांत से,  दक्षिण पूर्व अमरीका की दिशा में यात्रा करते हुए हम लोग यहाँ पहुँचे तो देखा कि अमरीका में हरेक प्रांत में उगे हुए पेड़ ,पौधे सर्वथा अलग किस्म के होते हैं।
           दक्षिण अमेरिका की आबोहवा में भी काफी फर्क महसूस हुआ। अमरीका के ५२ प्रांतों में कुछ के नाम एक समान हैं। नाम एक सा है जिनके आगे ' साउथ 'और ' नार्थ 'जोड़ दिया गया है। उदाहरणार्थ - साउथ डकोटा और नार्थ डकोटा  ! यह दोनों डकोटा  प्रांत ,  विशाल अमरीकी भूखंड के उत्तर मध्य दिशा में स्थित प्रांतों के नाम हैं।
        हमें , नार्थ कैरोलाइना प्रांत की हवा में हमारे ओहायो प्रांत से अधिक नमी महसूस हुई और मौसम भी ज्यादह तापमान लिए ज्यादह गरम लगा । सूर्य की किरणें भी यहाँ अत्यंत प्रखर थीं ऐसा लगा  ! नार्थ कैरोलाइना प्रांत , साउथ कैरोलाइना से उत्तर दिशा में है।  
 यह प्रांत हमारे प्रांत से जो काफी उत्तर दिशा में स्थित है , ग्रीष्म ऋतु में बहुत अधिक गर्म हो जाता है और उमस भरे दिन के बाद जोरों की बरखा भी यहां अक्सर होती है। 

अट्लाण्टिक महासागर के किनारे, मुख्य प्रदेश से बाहर निकला हुआ एक  द्वीप है जिसका  नाम है 'हिल्टन हेड आइलैंड 'वह हमारी यात्रा का लक्ष्य था।  हम लोगों ने ६ , ७ परिवारों ने अटलांटिक महासागर के किनारे बसे इस पर्यटन स्थल पर किनारे से सटे हुए 'रिज़ॉर्ट ' में ६ दिनों के लिए एक कॉटेज रिज़र्व कर रखा था। वहीं हमे आगे जाकर पहुंचना था। एक पुल या  ब्रिज पार करते ही एक अलग दुनिया में ये मार्ग ले चलता है।  सागर का जल हिल्टन हैड में मटमैला है और सागर के साहिल पे बिखरी रेत भी हमारे जुहू / बंबई जैसी ही लगी। पूर्व के मुकाबले पश्चिम अमरीका और पेसेफिक महासागर अधिक स्वच्छ , गहरे पारदर्शक फिरोजी फेनिल जल से प्लावित हैं और एक  अलग किस्म के रंग की  आभा लिए सुदूर पश्चिम में धूप में चमकते रहते हैं ।
      अमरीका के दक्षिणतम भूभाग में स्थित ' गल्फ ऑफ़ मेक्सिको 'और  करेबीयन समुद्र भी अलग रंगत लिए अटलांटिक और पेसेफिक महासागरों से छोटे होने से उन्हें समद्र और ज़मीन से घेरे हुए सागर को 'गल्फ 'कहा जाता है। मन और नयन ये सारे विलक्षण और अद्भुत नजारे कैद करने में व्यस्त है। साथ है सेल फोन कैमरा ! जी हाँ ! अब तो सेल फोन में भी कैमरा है तब चित्र लिए बिना  यात्रा अधूरी न रह जाएगी ? इसलिए हमने भी जी भर कर चित्र लिए। 
             खैर ! अभी तो हम नार्थ कैरोलाइना तक ही सफर में पहुंचे थे।  इसी नार्थ कैरोलाइना प्रांत के 'एशविल 'नामक सुन्दर शहर में हमें रूकना था।  यह हमारी यात्रा का प्रथम चरण था।              अमरीका के अत्यंत धनाढ्य वेंडरबिल्ट परिवार का  ८,००० एकड़ ज़मीन पर फैला हुआ भव्य , ग्रीष्म कालीन आवास है जिसका नाम है '  बिल्टमोर एस्टेट  ' ! यह  उत्तर अमरीकी भूखंड का, सब से विशालतम, नीजी आवास है।
3 people horseback riding on grounds
Walled Garden

कुछ वर्ष पूर्व बाहर से इस आलीशान आवास की बस एक झलक देखकर, हम अपनी एक यात्रा के दौरान आगे बढ़ गए थे।  परन्तु इस बार हमने, बाकायदा , टिकट खरीद कर इस विशेष आवास को जी भर कर देखना निश्चित क्या था। जिन पहाड़ियों पर 'बिल्टमोर 'बसा हुआ है उन पहाडियों  को 'ब्लू - रीज़ 'माउंटन 'कहते हैं।
चित्र में -- बिल्टमोर एस्टेट के प्रवेश द्वार पर हम --













बाहर आपके स्वागत के लिए फूल मुस्कुरा रहे हैं। 

Lagoonview winter snow

अब भीतरी कक्ष का दृश्य : सुंदर लकड़ी का काम और भित्ती चित्र भी देखें - 
Chair in front of the fireplace
अधिक जानकारी के लिए , कृपया देखें यह लिंक : 
http://www.biltmore.com/
आगे क्रमश : ~~ 

"ही इझ नो मोर "...

$
0
0

ही इझ नो मोर ! ११ फरवरी पापा की पुण्य तिथि --

स्व . पंडित नरेन्द्र शर्मा का यह शताब्दी वर्ष है - जन्म फरवरी  28 सन 1913  पुण्यतिथि : फरवरी 11 1989 

(ये चित्रों का कोलाज़ मेरी दीदी श्री लता मंगेशकर जी ने बना कर भेजा है सभी चित्र लता दीदी ने ही खींचे हैं )
स्व पँडित नरेन्द्र शर्माकी कुछ काव्य पँक्तियाँ :
"रक्तपात से नहीँ रुकेगी, गति पर मानवता की
हाँ मानवता गिरि शिखर, गहन, गह्वर
सीखै पाशवत व्यथा छिपे सीमा
 नहीँ मनुज के, गिर कर उठने की क्षमता की !

 आज हील रही नीँव राष्ट्र की,
व्यक्ति का स्वार्थ ना टस से मस !
राष्ट्र के सिवा सभी स्वाधीन,
व्यक्ति स्वातँत्र अहम के वश!
राष्ट्र की शक्ति सँपदा गौण,
मुख्य है, व्यक्ति व्यक्ति का धन!
नहीँ रग कोई अपनी जगह,
राष्ट्र की दुखती है नस नस!
राष्ट्र के रोम रोम मेँ आग,
बीन "नीरो "की बजती है
बुध्धिजीवी बन गया विदेह ,
राष्ट्र की मिथिला जलती है !
क्राँतिकारी बलिदानी व्यक्ति,
बन बैठे हैँ कब से बुत !
कह रहे हैँ दुनिया के लोग,
कहाँ हैँ भारत के सुत ?
क्योँ ना हम स्वाभिमान से जीयेँ?
चुनौती है, प्रत्येक दिवस !
जन क्राँति जगाने आई है,
उठ हिँदू, उठ मुसलमान-
सँकीर्ण भेद त्याग,
उठ, महादेश के महा प्राणॅ !
क्या पूरा हिन्दुस्तान, न यह ?
क्या पूरा पाकिस्तान नहीँ ?
मैँ हिँदू हूँ, तुम मुसलमान,
पर क्या दोनोँ इन्सान नहीँ ?"
नहीँ आज आश्चर्य हुआ,
क्योँ जीवन मुझे प्रवास ?
अहंकार की गाँठ रही,
निज पँसारी के हाथ !
हो भ्रष्ट न कुछ मिट्टी मेँ मिल,
केवल गल जाए अंहकार ,
मेरे अणु अणु मेँ दिव्य बीज,
जिसमेँ किसलय से छिपे भाव !
पर, जो हीरक से भी कठोर !
यदि होना ही है अँधकार,
दो, प्राण मुझे वरदान,
खुलेँ, चिर आत्म बोध के बँद द्वार!
यदि करना ही विष पान मुझे,
कल्याण रुप हूँ शिव समान,
दो प्राण यही वरदान मुझे!
तिनकोँ से बनती सृष्टि,
सीमाओँ मेँ पलती रहती,
वह जिस विराट का अँश,
उसी के झोँकोँ को ,
फिर फिर सहती !
हैं तिनकोँ मेँ तूफान छिपे ,
ज्योँ, शमी वृक्ष मेँ छिपी अगन !
-  पँडित नरेन्द्र शर्मा
कृष्ण - गीत :
राधा नाचे कृष्ण नाचे, नाचे गोपी जन !
मन मेरा बन गया सखी री सुँदर वृँदावन .
कान्हा की नन्ही ऊँगली पर नाचे गोवर्धन
राधा नाचे कृष्ण नाचे, नाचे गोपी जन !
मन मेरा बन गया सखी री सुँदर वृँदावन ।

श्याम सांवरे , राधा गोरी , जैसे बादल बिजली !
जोड़ी जुगल लिए गोपी दल , कुञ्ज गलिन से निकली ,
खड़े कदम्ब की छांह , बांह में बांह भरे मोहन !
राधा नाचे कृष्ण नाचे , नाचे गोपी जन !
वही द्वारिकाधीश सखी री , वही नन्द के नंदन !
एक हाथ में मुरली सोहे , दूजे चक्र सुदर्शन !
कान्हा की नन्ही ऊँगली पर नाचे गोवर्धन !
राधा नाचे कृष्ण नाचे , नाचे गोपी जन
जमुना जल में लहरें नाचें , लहरों पर शशि छाया !
मुरली पर अंगुलियाँ नाचें , उँगलियों पर माया !
नाचें गैय्याँ , छम छम छैँय्याँ , नाच रहा मधु - बन !
राधा नाचे कृष्ण नाचे , नाचे गोपी जन !
मन मेरा बन गया सखी री सुँदर वृँदावन .
गीत रचना : पँडित नरेन्द्र शर्मा
तीन वर्ष की मैं - लावण्या 
 

जब हम छोटे थे तब पता नहीँ था कि मेरे पापा जो हमेँ इतना प्यार करते थे वे एक असाधारण प्रतिभाशाली व्यक्ति हैँ जिन्होँने अपने कीर्तिमान अपने आप बनाए  
और वही पापा जी, 
हमेँ अपनी नरम हथेलियोँ से , ताली बजाकर गीत सुनाते
और हमारे पापा,उनकी ही कविता गाते हुए हमेँ नृत्य करता देखकर मुस्कुराते 
हुए गाते थे
"राधा नाचे कृष्ण नाचे, 
नाचे गोपी जन !
मन मेरा बन गया सखी री सुँदर वृँदावन 
कान्हा की नन्ही ऊँगली पर नाचे गोवर्धन "
ये गीत पापा जी जब गाया करते थे तब शायद मेरी ऊम्र ४ या ५ बरस की रही होगी.....


११ फरवरी करीब आ रही है और पापा जी की फिर याद, बार बार् , मन को मसोस जाती है -
१९८९ की काल रात्रि थी ९ बजे थे और हम चारोँ, मैँ,मँझली, बडी बहन वासवी, मुझसे छोटी बाँधवी हमारे पति, (सबसे छोटा परितोष पूना गया था ) और अम्मा पापा जी के इन्टेन्सीव वोर्ड मेँ, खडे थे , जब्, अम्मा , पापा जी के,पैरोँ को सहला रहीँ थीँ और पापा अनवरत"प्रभु ...प्रभु "कुछ रुक रुक  कर बोल रहे थे। हल्की लकीर मुस्कान की भी थी उनके पान से रँगे होँठेँ पर ...हाँ पान, जो आखिरी बार टहलते हुएशाम के करीब ४.३० बजे , उसे, रास्ता पार करके, नुक्कड की दुकान से लाये थे 
अम्मा से कहा था,'सुशीला , तुम चाय बनादो , मैँ तुम्हारे लिये पान ले आता हूँ "
पिछले ७ दिनोँसे, पापा ने, अपना भोजन नहीवत्` कर दिया था - सिर्फ सँतरा मुसम्बी का जुसही पीते थे ! 
वो भी दिन मेँ बस २ बार , शाम ढलने से पहले ! अम्मा भी परेशान थीँ -मुझसे ३ दिन पूरे हुए तब शिकायत भी की थी, "लावणी पापा न जाने क्यूँ सिर्फ जूस ही पी रहे हैँ और बेटे, फल भी खत्म् हो गये हैँ !"
मैँने फौरन बात काटते हुए कहा,
"अम्मा, मैँ हमारे महराज जी को अभी भेजती हूँ ..कुछ तो मेरे पास हैँ उनका जूस पीला देना और वे और बाज़ार से लेते आयेँगेँ मैँ समझा दूँगीँ "
'खैर ! बात आई गई हो गई ..
पापा निर्माता निर्देशक श्री बी. आर. चोपडा जी की "महाभारत " टी.वी.सीरीझ के निर्माण से जुडे हुए थे और सारी प्रक्रिया मेँ आकँठ डूबे हुए थे॥
रोजाना मीटीँग्स्, सुबह ९ बजे से तैयार , निकलते और शाम देरी से लौटते ! 
फल भिजवाने के दूसरे दिन, मैं, शाम को अम्मा पापा जी के घर पहुँच गई ..देखा , पापा चाय सामने रखे,गुमसुम से पालथी लगाये, डाइनीँग टेबल की क्रीम नर्म चमड़े से बनी कुर्सी पर बैठे हैँ ! -ये बिलकुल साधु सँतोँ जैसा उनका पोज रहता था सूती मलमल की , धोती, उनके पैरोँसे लिपटी रहती थी,वो पैर जो हमेशा चलते रहे ..काम का बोझ सरलता से उठाये ॥
अम्मा किचन से आयीँ और छोटी स्टील और ताँबे की कडाही मेँ गेहूँ का शीरा तभी बना के लाईं थीं -
जिसे १ निवाले जितना पापा ने मुझे दिया , खुद खाया और बस्! खत्म हो गया !!
-अम्मा को नहीँ दिया गया ! शायद वो मेरे "परम योगी"पिता का अँतिम प्रसाद था ॥
३ दिन गुजरे इस बात को और पान लेकर पापा लौटे तब तक उन्हेँ बैचेन देख अम्मा ने मुझे फोन किया मैँ चप्पलेँ पैरोँ मेँ डालकर भागी ॥
पता नही क्या सोचकर रुपयोँका बँडल भी पर्स मेँ जल्दी से डाल दिया ! मुझसे छोटी बाँधवी अपने पति दीलिप के सँग डाक्टर को लेकर आ पहुँची
पापा ने बडी विनम्रता से उठकर सब का स्वागत नमस्ते से किया परँतु उन्हेँ दिल का सीवीयर दौरा पडा है ऐसा डाक्टर ने कहा तब हम सभी, कुछ घबडाये -तुरँत कार मेँ अस्पताल जाने को निकले ॥
अम्मा पीछे की सीट पे मेरे साथ बैठीँ थीँ और पापा जी ने अम्मा का हाथ अपने सीने से लगा रख था और वे "प्रभु "प्रभु "बोल रहे थे !
मैँने सोचा, 'अगर मामला सीरीयस होता तब वे अवश्य "राम राम"बोलते ॥ गाँधी बापू की तरह !! ॥  मेरे पापा जी को कुछ नही होनेका ..वे स्वस्थ हो जायेँग़े ..' सोचा,  अरे, परितोष को , उसकी ज़िद्द पे ही, कितने प्रेम से, पीठ सहला कर नयी गाडी लाने भेजा था उन्होँने !
परितोष कहता, "पापा आप भी नयी कार मेँ काम पर जाया करिये ना, सभी जाते हैँ !"और पापा मुस्कुरा के रह जाते ॥
वे तो अक्सर, दूरदर्शन, आकाशवाणी,अन्य शैक्षिकणिक सँस्थानोँ के आमंत्रणों पर, ट्रैन, बस या अक्सर पैदल ही मीलोँ बम्बई मेँ घुम आत थे !
इतनी सहजता से, मानोँ ये कोई मुशिकल काम ही नहीँ !! और पापा के असँख्य प्रसँशक, मित्र, सहकर्मी, बडे बडे कलाकार, साहित्यकारोँ का
घर पर ताँता लगा रहता  !
           ऐसे पापा अस्पताल पहुँचे तब हार्ट स्पेशीयालीस्ट१ घम्टे विलम्ब से आये ! :-( :-(...और, अम्म नो हाथ फेरा तो पापा ने उनकी ओर देखा और आहिस्ता से आँखेँ मूँद लीँ ! बस्स ! क्या हुआ इसका किसी को भान न था :-((
एक मेरे पति दीपक के सिवा ..उसने अम्मा को प्यार से कहा, "चलिये अब घर जाकर थोडा, सुस्ता लेँ अम्मा आप भी थक गयीँ होँगीँ "
और अम्मा अनमने ढँग से बाहर आयीँ और दीपक उन्हेँ बाँद्रा से, खार के घर ले गये. हम तब भी वहीँ खडे थे पापा को घेरे हुए ...
और एक दूजे से कह रहे थे ,आज मैँ रात पापा के पास रहूँगी , कल तुम रहना "
पापा जी की , नर्म हथेली सहलाते वक्त , उन्होँने मुझे ढाढस बँधाया था, "बेटा, सब ठीक हो जायेगा"जैसे वे हमेशा कहा करते थे 
पर ,अम्मा के जाते ही हम पर मानोँ सारा आकाश टूट पडा और धरती खिसक गयी जब नर्स ने रुँआसे स्वर से कहा "ही इझ नो मोर "...

पंडित नरेन्द्र शर्मा ' सम्पूर्ण रचनावली 'तैयार है।  कृपया अधिक जानकारी के लिए देखें : 
परितोष नरेंद्र शर्मा 
टेलीफोन : दूरभाष : 226050138
 ई मेल : panditnarendrasharma@gmail.com 

प्रेषक :  - लावण्या दीपक शाह 

Special Program by Vividh Bharati on Poet Narendra Sharma centenary anniversary.

महिला दिवस 2013 : बलात्कार कैसे रोके जाएं? सवाल वेब दुनिया के, जवाब लावण्या दीपक शाह के

$
0
0

लावण्या दीपक शाह



महिला दिवस 2013 : बलात्कार कैसे रोके जाएं?
सवाल वेबदुनिया के, जवाब आपके

महिला दिवस 2013 को मनाए जाने के पूर्व वेबदुनिया टीम ने हर आम और खास महिला से भारत में नारी सुरक्षा को लेकर कुछ सवाल किए। हमें मेल द्वारा इन सवालों के सैकड़ों की संख्या में जवाब मिल रहे हैं। हमारी कोशिश है कि अधिकांश विचारों को स्थान मिल सके। प्रस्तुत हैं वेबदुनिया के सवाल और उन पर मिली मिश्रित प्रतिक्रियाएं....  
  
उत्तर अमेरिका से लेखिका लावण्या दीपक शाह के विचार   *
वेबदुनिया : भारत को महिलाओं के लिए सुरक्षित कैसे बनाया जाए?  

उत्तर : समाज के हर व्यक्ति की जिम्मेदारी है। साथ साथ सरकार भी जिम्मेदार है। *
वेबदुनिया : भारतीय महिलाओं का सही मायनों में सशक्तिकरण आप किसे मानते हैं?-आर्थिक स्वतंत्रता-दैहिक स्वतंत्रता-निर्णय लेने की स्वतंत्रता  
 उत्तर : तीनों मुद्दे स्त्री स्वातन्त्र्य को सशक्त करेंगें।  
* वेबदुनिया : घरेलू हिंसा के लिए मुख्य रूप से महिलाओं की खामोशी या सहनशक्ति जिम्मेदार है, क्या आप सहमत हैं?  
 उत्तर : महिलाएं समाज में पुरुष प्रधान पारिवारिक सत्ता के अधीन रहकर कार्य करतीं रहीं हैं। सहनशक्ति और स्त्री के ममत्त्व ये किसी भी महिला के गुणों पर सदैव पुरुषत्त्व के अधिकारों को हावी होते हुए सदियों से हमने भारत ही नहीं हर देश के समाज में देखा है। कुछ स्त्रियां अपनी अलग पहचान बनाने में सक्षम हो पाई हैं। परन्तु आज भी एक विशाल स्त्री समुदाय स्वतन्त्र नहीं दिखलाई पड़ता। स्त्री स्वतंत्रता को 'स्त्री हाथ से निकल गई'जैसी उक्तियों से जोड़ा जाता है और उसे लांछित किया जाता है।  

* वेबदुनिया : बॉलीवुड की बालाओं का भारत की ग्रामीण बालिकाओं पर नकारात्मक असर पड़ता है?   
उत्तर : बॉलीवुड की बालाएं, धनार्जन की होड़ में बॉलीवुड के हीरो के साथ रेस में दौड़ रहीं हैं पिछली पीढ़ी की हीरोइन आज की हीरोइन के मुकाबले कम कमा रहीं थीं। आज सिनेमा, साहित्य, समाचार पत्र, मैग्जीन जैसे 'वेबदुनिया'इत्यादि वैश्विक स्तर पर फैला हुआ है। मैं मानती हूं कि, सभी जिम्मेदार हैं..हर संस्था या व्यक्ति सुर्ख़ियों भरी, सनसनीखेज खबरें और बातें छापते हैं या प्रचारित करते हैं। एक ओर हम स्त्री-सुरक्षा की गंभीर समस्या पर वार्तालाप कर रहे हैं और दूसरी ओर वेबदुनिया या एनडीटीवी जैसे समाचार पोर्टल खुद ऐसे अश्लील हीरोईनों के चित्र छापता है और प्रचारित करता है। जिसका केप्शन/ शीर्षक हो'देखिए फलां एक्ट्रेस हॉट स्वीमिंग सूट में 'तब यह क्या सही होगा?
ऐसे चित्र ही युवा पीढ़ी को आकर्षित करते हैं और मामला आखिर 'धन'बनाने के चक्कर में उलझ के खत्म! अगर हम स्त्री-सुरक्षा की सोचें तो यहां त्वरित बदलाव आवश्यक है।  
* वेबदुनिया : : क्या स्त्री आज भी महज देह ही मानी जाती है, इंसान नहीं? 
 उत्तर : 'स्त्री 'भी'इंसान है। पुरुषों की तरह और उसे भी पुरुषों की तरह समाजिक प्रतिष्ठा और अधिकार मिलने आवश्यक हैं।  

* वेबदुनिया : क्या बदलते दौर में आने वाली पीढ़ी के मन में महिलाओं के प्रति सम्मान संभव नहीं है?
उत्तर : आशा तो यही करूंगी के महिलाओं के प्रति सम्मान बढ़ें। 

* वेबदुनिया : बलात्कार जैसी घटनाएं रोक पाना संभव है? अगर हां तो कैसे, और नहीं तो क्यों? 
उत्तर : 'बलात्कार 'सम्पूर्णतया रोक पाया असंभव है। क्योंकि जब तक समाज पूरी तरह एक स्वस्थ मानसिक स्तर पर नहीं पहुंचता 'पशुता'से भी गिरे हुए पाप कर्म में लिप्त मानसिक रोगी जो निरीह, निर्दोष बालिकाओं और महिलाओं के साथ ऐसा दुर्व्यवहार करता है उसे सुधारने के लिए, सामजिक शिक्षा और सच्चे और सात्विक मूल्यों को पुनर्स्थापित करना होगा। 

* वेबदुनिया : बलात्कार की बढ़ती घटनाओं के लिए आप किसे जिम्मेदार मानते हैं और क्यों?
उत्तर : भोगवादी सांस्कृतिक बहाव, 'आज हम हैं और हमें किसी का डर नहीं'ने आज के बिगड़े व्यक्ति को ज्यादा कठोर मानस का इंसान बना दिया है। हक तो लड़ झगड़ कर हासिल करना सभी को आ गया है परतु अपनी जिम्मेदारी के प्रति सर्वथा उदासीन रहना भी आज के इंसान में हम देख रहे हैं। 

* वेबदुनिया : मासूम बच्चियों के साथ बढ़ती बलात्कार की वारदातों के पीछे आखिर कौन सी विकृ‍ति होती है? 
उत्तर : 'हम पकड़े नहीं जाएंगें और सजा भी कम मिलेगी। और चारों तरफ बेशर्मी और अनादर, सरकारी संस्थान और अधिकतर व्यक्तियों का लालची और स्व-केन्द्रीत व्यवहार ही ऐसी विभत्स वारदातों के लिए आग में घी का काम कर रहे हैं। 'कन्या'की सुरक्षा का ध्यान पग-पग पर रहे। यह परिवार से लेकर समाज की हर 'स्त्री'की जिम्मेदारी है। अगर परिवार का कोई पुरुष अनुचित व्यवहार करता है तब उसे खुल कर के सजा दिलवाना जरूरी है। भले ही वह पिता, चाचा, ससुर, मामा , भाई, भतीजा, भांजा ही क्यों न हो ! 

* वेबदुनिया : क्या विदेशों में महिलाओं की स्थिति भारत से बेहतर है? 
उत्तर : सऊदी अरेबिया में अगर कोई चोरी करे तो हाथ काट दिए जाने की सजा है परन्तु वहीं तालिबानी पुरुष एक बुर्के में लिपटी स्त्री को पत्थर और कोड़े से पीट देते हैं। अफ्रीका में स्त्री की स्थिति गंभीर रूप से बिगड़ी है जहां हरेक प्रांत में असुरक्षा और आतंक फैला हुआ है। पाश्चात्त्य देशों में बलात्कार होते तो हैं परन्तु क़ानून महिलाओं के लिए लड़ता है और दोषी को सजा भी मिलती है। भारत के लिए आवश्यक है कि पश्चिम का अंधानुकरण ना करें। हां स्वच्छता, अनुशासन, कर्म के प्रति प्रतिबद्धता जैसी बातों को जरूर सीखें। सिने - तारिका , होलीवुड की हीरोइन सी दीखने के बजाय क्यों न भारतीयता का पर्याय बनें ? 

होली की रंगीन यादें ..."पिया के घर में पहला दिन "

$
0
0


ॐ 
 होली की  रंगीन यादें ..."पिया के घर में पहला दिन "
------------------------------------------------------
मेरी अम्मा श्रीमती सुशीला नरेंद्र शर्मा की हमे सुनायी हुई  यह यादें  आपके संग बाँट रही हूँ। 
        मेरी अम्मा सुशीला का विवाह प्रसिध्ध गीतकार नरेंद्र शर्मा के संग , सन १९४७ की १२ मई के दिन , छायावाद के मूर्धन्य कविवर श्री सुमित्रानंदन पन्त जी के आग्रह से बंबई शहर में संपन्न हुआ था।  
          पन्त जी अपने अनुज समान कवि नरेंद्र शर्मा के साथ बंबई शहर के उपनगर माटुंगा के शिवाजी पार्क  इलाके में रहते थे। हिन्दी के प्रसिध्ध साहित्यकार श्री  अमृतलाल नागर जी व उनकी धर्मपत्नी प्रतिभा जी ने कुमारी सुशीला गोदीवाला को गृह प्रवेश  करवाने का मांगलिक  आयोजन संपन्न किया था। 
      सुशीला , मेरी अम्मा अत्यंत  रूपवती थीं और  दुल्हन के वेष में उनका चित्र आपको मेरी बात से सहमत करवाएगा ऐसा विशवास है।  
विधिवत पाणि -- ग्रहण संस्कार संपन्न होने  के पश्चात वर वधु नरेंद्र व सुशीला को सुप्रसिध्ध गान कोकिला सु श्री सुब्बुलक्ष्मी जी व सदाशिवम जी की गहरे नीले रंग की गाडी जो सुफेद फूलों से सजी थी  उसमे बिठलाकर घर तक लाया गया था।     
        द्वार पर खडी नव वधु सुशीला को कुमकुम  से भरे एक बड़े थाल पर खड़ा किया गया और एक एक पग रखतीं हुईं लक्ष्मी की तरह सुशीला ने  गृह प्रवेश किया था।  तब दक्षिण भारत की सुप्रसिध्ध गायिका सुश्री सुब्बुलक्ष्मी जी ने मंगल गीत गाये थे। मंगल गीत में भारत कोकिला सुब्बुलक्ष्मी जी का साथ दे रहीं थें उस समय की सुन्दर नायिका और सुमधुर गायिका सुरैया जी भी  ! 
      विवाह की बारात में सिने  कलाकार श्री अशोक कुमार, दिग्दर्शक श्री चेतन आनंद, श्री  विजयानंद, संगीत निर्देशक श्री अनिल बिस्वास, शायर जनाब सफदर आह सीतापुरी, श्री रामानन्द सागर , श्री दिलीप कुमार साहब  जैसी मशहूर कला क्षेत्र की हस्तियाँ शामिल थीं। 
      सौ. प्रतिभा जी ने नई दुल्हन सुशीला को फूलों का घाघरा फूलों की चोली और फूलों की चुनरी और सारे फूलों से  बने गहने , जैसे कि , बाजूबंद, गलहार, करधनी , झूमर पहनाकर सजाया था। 
     कवि शिरोमणि पन्त जी ने सुशीला के इस फुल श्रुंगार से सजे  रूप को ,  एक बार देखने की इच्छा प्रकट की और नव परिणीता सौभाग्यकांक्षिणी  सुशीला को देख कर वे 
बोले   'शायद , दुष्यंत की शकुन्तला कुछ ऐसी ही लगीं होंगीं ! '      
      
 ऐसी सुमधुर ससुराल की स्मृतियाँ सहेजे अम्मा हम ४ बालकों की माता बनीं उसके कई बरसों तक मन में संजोये रख अक्सर प्रसन्न होतीं रहीं और  ये सुनहरी यादें हमारे संग बांटने की हमारी उमर हुई तब हमे भी कह कर  सुनाईं थीं।  जिसे आज दुहरा रही हूँ। 
        
सन १९५५ से कवि  श्री नरेंद्र शर्मा  को ऑल  इंडिया रेडियो के 'विविध भारती 'कार्यक्रम जिसका नामकरण भी उन्हींने किया है उसके प्रथम प्रबंधक, निर्देशक , निर्माता के कार्य के लिए भारत सरकार ने अनुबंधित किया था। इसी पद पर वे १९७१ तक कार्य करते रहे। उस दौरान उन्हें बंबई से नई देहली के आकाशवाणी कार्यालय में स्थानांतरण होकर कुछ वर्ष देहली रहना हुआ था। 
  
हमारे भारतीय त्यौहार ऋतु अनुसार आते जाते रहे हैं।  सो इसी तरह एक वर्ष 'होली 'भी आ गयी। उस  साल होली का वाकया कुछ यूं हुआ ...
          
नरेंद्र शर्मा को बंबई से सुशीला का ख़त मिला ! जिसे उन्होंने अपनी लेखन प्रक्रिया की बैठक पर , लेटे हुए ही पढने की उत्सुकता से चिठ्ठी फाड़ कर पढने का उपक्रम किया ! किन्तु, सहसा , ख़त से 'गुलाल 'उनके चश्मे पर, हाथों पे और रेशमी सिल्क के कुर्ते पे बिखर , बिखर गया ! उनकी पत्नी ने बम्बई नगरिया से गुलाल भर कर यह ख़त भेज दिया था और वही गुलाल ख़त के लिफ़ाफ़े से झर झर कर गिर रहा था और उन्हें होली के रंग में रंग रहा था ! आहा ! है ना मजेदार वाकया ?

           नरेंद्र शर्मा पत्नी की शरारत पे मुस्कुराने लगे थे ! 

 इस तरह दूर देस बसी पत्नी ने , अपने पति की अनुपस्थिति में भी उन के संग  'होली 'का उत्सव ,  गुलाल भरे संदेस भेज कर के पवित्र अभिषेक से संपन्न किया ! कहते हैं ना , प्रेम यूं ही दोनों ओर पलता है   
           
हमारे भारतीय उत्सव सर्वथा भारतीयता  के विशिष्ट गुण लिए हुए हैं जिन्हें परदेस में बसे हर प्रवासी  हसरत भरे दिल से याद करता है। 
        जैसे आज अमरीकी धरती  पे रहते हुए मैं याद कर रही हूँ और आप  सभी के लिए सस्नेह, एक दमकता सा गुलाल का टीका भेज रही हूँ , होली मुबारक हो ! 
सुशीला जी 















लावण्या शाह 





From : http://rashmiravija.blogspot.in/2013/03/blog-post_23.html

'सपनों के साहिल ': देवदासी प्रथा : मेरे उपन्यास का पूर्व कथानक

$
0
0
ॐ 
सपनों के साहिल : 
न १९२० का समय !  इतिहास के मोड़ पर रूका है समय और देख रहा है  गुलामी की जंजीरों से बंधे  भारतवर्ष को ! कश्मीर से कन्याकुमारी और पश्चिम छोर पर अफघानिस्तान से लेकर पूर्व में बर्मा तक फैला एकछत्र , अखंड भारत वर्ष ! अपने देशवासीयों के जीवन की गहमागहमी में  रचा बसा भारत देश!  जहां एक नया सवेरा साकार हो कर , स्वतंत्रता का आन्दोलन बनकर , भारत के वीर संतानों के प्रयासों से ,  धीरे धीरे गति पकड़ कर,  भारत माता के  मालिक बन बैठे अंगरेजी शासन को दूर हटाने  के मंसूबे पाल रहा है हां, ये वही  वेद भूमि भारत है। पुराणों में वर्णित कथा जहां जन्म लेकर ग्रंथों में उकेरी गयी हैं । शास्त्रों  में वर्णित 'जम्बूद्वीप 'भारत वर्ष  आज  उपस्थित है अपने वर्तमान के साथ
          इतिहास की  बदलती हुई करवटों के साथ भारत भूमि ने कयी बदलावों को देखा है  अनगिनत राजा , महाराजा , संत , साधू ,  सन्यासी  योगी , कलाकार , रचनाकार यहां अवतरित हुए  और चले गये  समय बीतता  गया  जो पीछे छूटा वह इतिहास के पन्नों में छिप गया और नित नये पात्र उभर कर आते रहे 
                    भारत भूमि की समृध्धि और वैभव से आकर्षित होकर कयी  विदेशी आक्रमणकारी भी खींचे चले आये  कुछ यहीं रूक गये तो  कुछ, आतंक और विनाश , युध्ध और लूटपाट  करने के पश्चात , अपार संपत्ति लूट कर चले गये  मुगलिया सल्तनत की नींव भी इसी तरह  आक्रमणकारी बाबर के आगमन के बाद ही पडी थी 
           आज सन १९२० में  भारत भूमि पर परदेसी हुकूमत जारी है । अब अंग्रेजों की बारी  है। जो दिल्ली पे राज करे वो भारत का भी राजा ! गोरे राजा की तस्वीर भारत के रूपये  पे जडी हुई है चूंकि राज्य सत्ता आज  गोरों के हाथों में है
       भारत बदल तो रहा है पर धीरे धीरे ! सड़कें बन रहीं हैं  माल से लदे जहाज , ग्रेट ब्रिटन से ,  भारत आने लगे हैं और रेल यात्रा भारत को एक सूत्र में पिरो रही है  गांधीजी का सत्याग्रह आन्दोलन देश के लोगों का ध्यान आकर्षित करने लगा है भारत के गाँवों में अब भी छूआछूत , वर्ण व्यवस्था , गरीब और अमीर वर्ग की रेखाएं  ज्यों की त्यों , खींचीं हुईं हैं  और  समाज को जड़ता और रूढ़ियों  में जकड़े हुए इस वक्त टूटने के कोई आसार जतला नहीं रहीं।  जनरल डायर के पिछले साल किये नृशंस और जघन्य जलियांवाला बाग़ हत्याकांड ने भारतीय जन मानस को इस दुःख की बेला में एक सूत्र में पिरोकर मानों जोड़ दिया है अमृतसर में घटी इस घटना की दूर सुदूर दक्षिण भारत के छोटे बड़े गाँव और कस्बों तक खबर फ़ैल चुकी है कि , निर्मम गोरे जनरल ने महिला और भोले भाले बच्चों तक को गोलियों से भून देने का फरमान दिया था
                                
जो कोई ये सुनता एक पल को निस्तब्ध  , अवाक  खड़ा रह जाता ! 'हे देव ! ऐसा अत्याचारी तो कंस न था ना ही रावण ही होगा ...बड़े अधम हैं ये फिरंगी जो ऐसे पाप करते हैं ! 'लोग कहते और गांधी जी के प्रति श्रध्धा से नत मस्तक हो जाते 
                       भारत की कृषि प्रधान व्यवस्था भी अब बदल रही थी  जिस धान्य से अधिक धन की प्राप्ति हो ऐसे रूई की खेती पर  या नील या तमाकू जैसे धनार्जन के लिए लगायी  फसल पे  किसान की आस टिकने लगी थी चूंकि , यही कपास ब्रिटन की मेनचेस्टर और लेंकेशायर की कपड़ा मीलों के लिए जहाज़ों में लद कर भेज दिया जाता और बना बनाया कपड़ा भारत पहुंचता . हाथ करघे तथा अन्य बुनकरों के व्यवसाय , मंदी भुगतने लगे थे  तमाकू , सिगरेट बनाने के लिए निर्यात हो रहा था और नील रंग की खपत बढ़ रही थी .  ब्रिटीश राज सता के दमन का कुचक्र , कयी दिशाओं में अपनी धार से , जन जीवन को घायल करता अपनी धुरी पर घूम रहा था . जिसके  क्रूर वार से  कितने ही इंसान मार ख़ा कर लहूलुहान हो रहे थे परिवार उजड़ रहे थे. भारत के गाँव गरीबी की ओर झुकने लगे थे और पारम्पारिक उद्योग चरमराकर टूटने लगे थे
                 भारत में असंख्य छोटे , बड़े  राज घराने तब भी स्वतन्त्र थे उनकी अपनी सेनाएं थीं । राजा के चित्र लिए पैसों के सिक्के थे  नोट थीं  शासन था और उन राज परिवारों की शान शौकत , दबदबा और चकाचौंध अपनी चरम सीमा पर तब  भी कायम था  सन १९२० के समय में इन  ऊंचे घराने में जी रहे श्रीमंत  और धनिक वर्ग अपनी अपार  संपदा के  मद में चूर , शानो शौकत और रंगरेलियों में आबाद जीवन गुजार रहा था . 
 कयी राजा महाराजा योरोप जाकर ,  वहां के जीवन में , घुलमिलकर , सानन्द अपना  समय बिताते  थे .  राज परिवार के सदस्यों ने मानों  आँखों पे पट्टी बाँध रखी है . उस गुलाबी पट  के पीछे से उन्हें दुनिया  रंगीन और  हसीन नजर आ रही थी 
              आइये अब चलें भारत के दक्षिण की ओर ! 

रात्रि का समय है और दक्षिण भारत के ऐसे ही समृध्ध राज घराने के  राज महल की खुली खिडकियों से फ़ैल रहा प्रकाश,  बाहर घिरे अन्धकार को मानों अपने गौरव से महिमा मंडीत करता परास्त कर रहा है महल के बाग़ की हरियाली अन्धकार की चादर ओढ़े सो रही है परंतु कयी रात्रि वेला में खिलते फूलों की सुगंध पवन में फ़ैल रही है  राज महल से कुछ कोस की दूरी पर राज्य का मुख्य मंदिर है 
            काले पाषाण से बना यह प्राचीन मंदिर दूर दूर के प्रान्तों तक सुप्रसिद्ध है . यहां शिव , नटराज स्वरूप में विद्यमान हैं  चार हाथवाली कांस्य प्रतिमा भारतीय संस्कृति की परिभाषा लिए सदीयों से इस भव्य मंदिर के गर्भ गृह में , विद्यमान है 
              शिव - नटराजन ,  दाहिने हाथ में डमरू  धारण किये हैं  शिवजी के  डमरू से ही प्रथम प्रणव नाद उत्पन्न हुआ  ॐ कार से ज्ञान का सृजन हुआ और सृष्टि का आरम्भ हुआ  महर्षि  पाणिनी  को व्याकरण ज्ञान इसी डमरू के नाद के प्रसाद स्वरूप प्राप्त हुआ था  अत: उन्होंने पाणीनीय व्याकरण के प्रथम अध्याय को "शिव सूत्र "कहा और अपने ग्रन्थ में ,  भाषा व्याकरण के नियम प्रतिपादीत किये थे  बांयें हाथ में  परम शिव , अग्नि को उठाये हुए है और दुसरे दाहिने हाथ से भक्त गण को अभय मुद्रा से आद्यात्म मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते स्थिर खड़े हैं  नटराज शिव का दूसरा  बांया हाथ,  नीचे पग की ओर संकेत करते हुए झुका  हुआ है मानो  कह रहा है ,
 'शरणागति स्वीकारो . मैं तुम्हारी  आत्मा को मुक्त करूंगा ताकि आवागमन के  फेर से तुम मुक्त हो जाओ  ' 
सदाशिव एक बौने  असुर की आकृति पर  बांये  पैर  से स्थिर खड़े  हैं  ये बौना असुर ,  अज्ञान का प्रतीक है  शंकर भगवान् का दांया पैर,  कमर से ऊपर उठ गया है  इस योगमुद्रा में, पैर  ऊंचे किये हुए नटराज शिव  अपने अदभुत सौन्दर्य से 'सुन्दरेश्वरा 'नाम को चरितार्थ करते हुए , सुशोभित हैं 
        महादेव ने  जटाधारी  मस्तक  पर चंद्रमा धारण किया हुआ है  विश्व का सर्वाधिक विषैला  कोबरा नाग  , कैलाशपति के दाहिने बाजूबंद के स्थान से फुफकारता हुआ नटराज शिव का अलंकरण बना शोभायमान है और  महाविष्णु  जिस तरह वक्ष पर कौस्तुभ मणि धारण करते हैं , भोलेनाथ  ने अपने वक्ष पर उस स्थान पर नर  मुंड धारण किया है और वे इन विलक्षण आभूषणों को धारण किये  प्रसन्न व  शांत मुद्रा में तप लीन हैं 
                         महा अदभुत स्वरूप है शिव शंकर का !  जिसे देख हरेक भक्त निशब्द और मौन खडा रह जाता है । नटराज शिव , ब्रह्म का साक्षात स्वरूप हैं  ! आठ तत्व , आकाश, वायु, अग्नि, धरा, जल ,  मन , बुद्धि और अहंकार तो प्रकट हैं जिन्हें ज्ञानवान पहचानता है परंतु नौवां तत्त्व गुप्त है।   जिसे कोई नहीं जानता ! न ही जिसे व्याख्या में बांधकर समझाया जा सकता है।  
         नटराज का तीसरा नेत्र बंद रहता है। तांडव नृत्य करते शिव नटराज सृष्टि के प्रलय काल में यह तीसरा नेत्र जो कपाल पर दो भृकुटी के मध्य में स्थित है, खोलकर, सम्पूर्ण विनाश कर सृष्टि चक्र का प्रलय कर देते हैं नटराज के चारों  ओर बना हुआ  अग्नि का वर्तुल  जिसे 'प्रभावती 'कहते हैं , वह इसी पूर्ण संहार का प्रतीक है नव सर्जन और नव निर्माण भी शिव आज्ञा से ही ब्रह्मा जी द्वारा निर्मित होता है यह मूर्ति, पल्लव वंश के राज परिवारों के आदेश पर मूर्तिकारों ने सप्तम या आठवीं सदी में  निर्मित की थी नृत्य करते नटराज महा योगी हैं 
              वेदाचार्य योग गुरु पतंजलि द्वारा पूजित शिव लिंग भी यहीं संग्रहीत है कथा है , आदीशेष  भगवान को शिव तांडव देखने की उत्कट इच्छा हुई 
      तब शिवजी ने उन्हें वरदान दिया और कहा कि ,
'तुम पतंजलि के रूप में जन्म लोगो , मेरे दर्शन करोगे और तभी मेरा तांडव नृत्य भी देख पाओगे ' 
     इसी रमणीय मंदिर के पास साधना करते हुए आचार्य पतंजलि को शिव वरदान से यह सुख प्राप्त हुआ था इस शिव अनुकम्पा के पश्चात स्वयं पतंजलि नाट्य शास्त्र में प्रवीण हो गये थे त्रिचिनापल्ली से २० किलोमीटर  दूर , तिरुपत्तर के ब्रह्म्पुरीश्वर मंदिर में पतंजलि महाराज की जीव समाधि है  यहीं ब्रह्माजी ने १२ शिव लिंगों की स्थापना की थी 
           योगाचार्य  महर्षि पतंजलि ने दीक्षीतार ब्राह्मण पुजारी  को कैलाश प्रांत से लाकर दक्षिण भारत में स्थायी किया और  शिवोहम भाव से, यहां प्रतिदिन की जाती आराधना अर्चना ,  रहस्यमय पूजाविधि सीखलायी थी जिस विधि से, शिव परब्रह्म के आकाश तत्त्व की पूजा अर्चना सदीयों से यहां संपन्न होती रही है  
          शिवा या देवी उमा को शिवकामी  सुन्दरी या शिवानन्द नायिका कहते हैं चित्त के आकाश या अम्बर  और उसी  रिक्त स्थान में स्थित परब्रह्म परमात्मा ही नटराज शिव स्वरूप से  इस देव मंदिर में , सदीयों से  पूजित हैं।  यह ऐसा अनोखा व अदभुत तथा  अति प्राचीन मंदिर है  
        महादेव शंकर योग के आदिगुरू हैं और नृत्य शास्त्र के भी जनक हैं  प्रभू महेश ने तांडव नृत्य और देवी पार्वती ने लास्य नृत्य गन्धर्व वृन्द और अप्सराओं को सिखलाया  नृत्य शास्त्र का ज्ञान तब भरत मुनि को देकर पृथ्वी पर भेज दिया गया । जिसे 'नाट्य शास्त्र 'में ईसा पूर्व २०० वीं सदी में ग्रन्थ के रूप में संगृहीत किया गया आज तक, यही भरत मुनि द्वारा लिखा गया नाट्य शास्त्र भारत के नृत्यों का आधार है
        चौल राज परिवार और राजवंश के शासन काल में 'देवदासी 'प्रथा प्रचलित थी थान्जुवर के ब्रुहदारेश्वर मंदिर ग्राम में ४०० से अधिक देवदासीयों  का समुदाय समाज का अंग था  मंदिर के साथ लगे विशाल प्रांगण में, वाध्य यन्त्रों के ज्ञाता , गायक पुजारी , पाक शास्त्र में निपुण सेवक वृन्द , पुजारी , माली स्वर्णकार , शिल्पी , बढई मंदिर निर्माण में दक्ष वास्तुकार , मूर्तिकार जैसे कयी सारे मुख्य मंदिर और राज वंश की सेवा में संलग्न थे 
           कालिदास के सुप्रसिद्ध ग्रन्थ 'मेघदूत 'में उज्जयनी नगरी में महाकालेश्वर मंदिर में देवदासी प्रथा की ओर संकेत किया गया है तान्जोर , ट्रावन्कोर राज्यों में देवदासी संख्या की बहुलता थी देवदासी नृत्य कर देवता को रिझाते हुए अपनी आत्मा के उत्थान पर केन्द्रीत रहते हुए कला के चरम बिन्दु पर पहुँचती थी परंतु 'राज नर्तकी 'महाराजाधिराज को रिझाने के लिए नृत्य प्रस्तुत करती थी . इसी कारण 'राजदासी 'कहलाती थी  
      देवदासी प्रथा सनातन हिन्दू धर्म के अति विशाल वितान के नीचे , एक प्रथा मात्र थी परंतु अंग्रेज सरकार जो अधिकतर ईसाई धर्म का अनुशरण करता था और भारत के नये बुध्धीजीवी , अंगरेजी शिक्षा पध्धति से शिक्षा प्राप्त , समाज सुधारक वर्ग को 'देवदासी प्रथा 'के उन्मूलन की अधिक चिंता हो आयी थी भारत में मौजूद , अधिकाँश वेश्यालय अंग्रेज़ी हूकुमत के संरक्षण में पनप रहे होने के बावजूद , देवदासी प्रथा का अंग्रेजों ने नये कानून बनाकर विरोध किया जिस विरोध में भारत का पढ़ा लिखा वर्ग , समाज सुधार की भावना लिए , उनके साथ हो लिया  

रुक्मिणी  देवी
जन्म : २९  फरवरी  १९०४
मदुरै  तमिलनाडु  भारत 
 थियोसोफीकल सोसायटी ने नृत्यांगना रुक्मिणी देवी अरूंडेल का विवाह जोर्ज अरूंडेल के संग हुआ था जब रुक्मिणी मात्र १६ वर्ष की थीं और जे. कृष्ण्मूर्ति के गुरु जोर्ज  ४२ साल  के थे जोर्ज  स्वयं लिबरल केथोलिक चर्च के बिशप थे और वाराणसी सेन्ट्रल हिन्दू कोलेज के इतिहास विषय के प्राद्यापक भी थे भारत नाट्यम नृत्य शैली की आधुनिक प्रचलित रीति इन्हीं दम्पति की उपज है  कलाक्षेत्र  भारत नाट्यम के आधुनिक स्वरूप का प्रथम महाविद्यालय रुक्मिणी और जोर्ज अरुंडेल दम्पति ने भारत वर्ष को उपहार में दिया है जिसकी प्रसिद्धी जग विख्यात है 

Balasaraswati
बाला सरस्वती 

बाला सरस्वती ...
     बाला सरस्वती के प्रयासों को सहायता देकर देवदासी प्रथा के संग  विनिष्ट होने के कगार पर , भारत की अति प्राचीन नाट्य संपदा ,  प्राचीन भारत नाट्यम नृत्य प्रणाली जिसे 'साडीर ' भी कहते हैं, उस को लुप्त होने से बचाने में सहायता की थी 
              अन्यथा आज भारत के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में चाव से और भारतीय कला के प्रति अभिमान की भावना से देखे जा रहे भारत नाट्यम, ओडीसी  और मोहिनी अट्टम जैसे अति प्राचीन नृत्य शायद हमे देखने को नसीब न हो पाते   
          सन १९८८ में देवदासी प्रथा को आंध्र प्रदेश में समाप्त करने की घोषणा की गयी थी और समूचे स्वतन्त्र भारत में कानून बनाकर इस प्राचीन प्रथा को  समाप्त करने की घोषणा हुई  सन २००४ तक देवदासी प्रथा  के किस्से उभरते रहे  कर्नाटक प्रांत में सन १९८२ से देवदासी प्रथा का कडा विरोध आरम्भ हो चुका था . कर्नाटक प्रांत में देवदासी को 'बसवी 'कहते थे , तो महाराष्ट्र में 'मातंगी 'नाम लिया जाता था  कहीं उन्हें 'नल्ली 'तो कहीं 'मुरली 'तो कहीं 'वेंकटसन्नी 'या 'थेयारीडीयन  भी पुकारा  जाता था       

 ओरीस्स्सा के जगन्नाथ मंदिर की 'मेहरी 'भी जगत के नाथ ईश्वर के प्रति श्रध्धा रूपी नर्तन से भक्ति की पताका फहराती थी  महरी नाम है 'मोहन की नारी 'का !
                      ओडीसी नृत्य के आचार्य पंकज चरण दास कहते हैं, 'पञ्च  महा रिपु अरी  इति महरी 'जो पांच महा पापों की काटनेवाली  आरी है वह महरी है  सन १३६० में सुलतान शाह ने ओरीस्सा पर धावा बोला और तब से स्त्रियाँ, परदे की आड़ में अपनी लज्जा छिपाने लगीं और 'महरी प्रथा भी लुप्त प्राय: होने लगी   तब इन महरियों की संख्या , सन १९५६ तक मात्र ९ और सन १९८० तक मात्र ४ की संख्या रह गयी थी   उनके नाम थे , हरप्रिया , कोकिल्प्रभा , परोश्मोनी  एवं  शशिमोनी . कुछ वर्षों पश्चात , शशिमोनी और परोश्मनी नव्कलेबर , नन्द उत्सव तथा रथ उत्सव जैसे जगन्नाथ पुरी के उत्सवों में भाग लेतीं दीखलायी पड़ जातीं थीं  
           कर्नाटक प्रांत में देवदासी प्रथा १० सदीयों से अटूट चली आ रही थी  वहां 'येल्लाम्मा 'देवी की पूजा की जाती है  जामदग्न ऋषि पत्नी रेणुका परशुराम की माता ही देवी येल्लाम्मा 'नाम से  कर्नाटक में स्थित देवदासी सम्प्रदाय में प्रसिध्ध हैं और पूजी जातीं हैं  
              देवदासी  ईश्वर से ब्याही हातीं हैं जब् मंदिर में गर्भ गृह के समक्ष ईश्वर मूर्ति से कन्या का विवाह किया जाता है  कन्या का ऋतुमती होना उत्सव का रूप ले लेता है ।  इस ईश्वर के संग विवाह समारोह के हो जाने पर वह कन्या देवदासी , 'नित्य सुमंगली 'या 'अखंड सौभाग्यवती ' कही जाती है   

 - लावण्या

A Daughter remembers : ' Jyoti ~ Kalash '

$
0
0
 
A Daughter remembers : ' Jyoti ~ Kalash '

                   Like a  child that  climbs out of the womb of Earth and stands in awe witnessing the glorious golden Sun rays, sparkling on the highest peak of  majestic  Everest and remains transfixed that is the feeling flooding my tiny heart as I sit and write and remember my father , late poet Pandit Narendra Sharma. 
             His contribution is immense. It is spread over six decades on all the modern mass media communication avenues like Books, Films, Radio, Television and now the WWW Internet via YouTube, Face book etc.
          For me , i confess that  my Papa  was our  family's ' Jyoti ~ Kalash ' !  He remains  life  giving , illuminating SUN energizing and inspiring me inspite of lifes' pitfalls. I hope, his immortal  poems and songs will inspires us all today and forever.So, 
  I dedicate the song  ' Jyoti - Kalash Chalke' in his fond memory. 
 We all know him for his Hindi Songs but he was also an expert astrologer,  Ayurvedic healer, as well as human  encyclopedia on Indian History , Culture and Philosophy. 
Many children were given unique names like Vihaan ( Dawn ) , Yuti ( Union ) Lavanya ( Grace = me :)  Kunjam ( Cuckoo ) , Sopan ( chapter or ascent = My Son )
             Some Rare names given by him include ' Vividh - Bharti, ' Manjusha, Bela Ke Phool, Hawa Mahal , Gajra, etc for AIR , the name Dilip Kumar to Yusuf khan & NAVKETAN for Dev Anand's Film Production co. 

           A gifted child ' Narendra ' was born on February 28th , 1913 in village Jahangirpur,  Tehsil , Khurja of district Bulandshahar U.P. in a Bharadwaj Brahmin family. He lost his father Purna Lal Sharma when he was merely 4 years old and was  raised lovingly by Uncle Ganpat Tau ji &  Ma Ganga Devi.
            A child prodigy ' Narendra ' named thus by an uncle (a fan of Tagore) entered straight into class  7 th and was a top student in his class and favorite of Teachers.  
            Passing intermediate from Khurja, he  joined Allahabad university and did his Masters in English lit. & Education. 
            The Sangam city of Allahabad introduced the budding poet to giants of Hindi literature like Niralaji , Mahadevi, Pant, Bachchan, Kedar Nath , Shamsher &  many others.  Narendra's book of poems ' Shool - Phool ' was released @ age 20. Teaching other students  and doing editorial duties ( he  was sub editor of  Abhyudaya Hindi Daily Newspaper. ) he completed his studies. 
                After graduating He taught English & Hindi poetry @ Benaras Hindu University.Then joined AICC @ Allahabad as Hindi Secretary to Pandit Jawaharlal Nehru & joined All India Congress Committee as Hindi Adhikari Feb 1955           
                      
             Narendra Sharma' poems written in his youth , depicting love and longing and splandour of Nature steadily turned patriotic  as India reached its' tryst with Destiny. 
                       During AICC work he was imprisoned on direct ordinance of Viceroy and jailed without trial by the British. The patriot had august company of Menon, kriplani  etc in Devli Detention Camp &  Rajasthan &  Pune Jails. He did fast unto Death for 14 days &  was force fed in order to keep him alive &  released early. 
                               Mother Ganga Devi remained hungry for 1 week  and awaitied her son's arrival at home. 
Novelist  Shri  Bhagwati Charan Verma ( Chitralekha fame ) arrived and asked the patriot to come away with him to the Film city of Bombay to join Bombay Talkies under Devika Rani. Thus began the journey of a young man born near the Ganga to go towards the Arabian Sea where destiny introduced him to Susheela Godiwala.  ( his wife to be from a Gujrati family.)  They  got married on may 12th 1947. Their home @ Shivaji park Matunga was a hub of artistic and creative activity with the likes of  Flutist Panna Lal Ghosh, Poet Pant,  Legendry music director Anil Biswas,  Shayar Dr Safdar Aah sitapuri,  The up & coming director Ramand  Sagar,  established Director Producer Chetan Anand & his younger sibling Vijay Anand,  A New actor & star  Dilip Kumar , Novelist Shri Amrit Lal Nagar etc as regular Guests. 

Narendra Sharma's poetry blossomed along with his many Film songs as years rolled on. The Progressive Patriotic tone eventually  embraced the core values of humanity and emerged  and paraphrased words from Indian philosophy with fascinating use of  many rarely used meters in his later poems.  
              So much so that his fellow poets said ' The Goddess of Poetry Mata Saraswati turned shy as a  young maiden stood up  from her White Lotus seat and took on the robes of Mother India and the poems of Narendra  became heavy with the age old wisdom of the vedas and became  extremely difficult ' 
                                   Narendra Sharma confessed in a foreword  from his Book ' Pyasa - Nirjhar ' [ Thirsty Brook ] 
' my earlier poems were the krishna paksh ( waning Moon cycle ) and my later poems are the transition towards Shukla Paksha ( Waxing Moon ) Shukla paksha refers to the bright lunar fortnight or waxing moon in the Hindu calendar. [Shukla (Sanskritशुक्ल) is Sanskrit word for color white]  
                  A Saint Poet in the tradition of our Bhakt Kavi Tulsi, Narsimh Mehta & Tukaram , poet Narendra Sharma remained young at heart till his last breath.
१९६० मे प्रकाशित "द्रौपदी: खँडकाव्य की भूमिका मे स्वीकार  करता है कि "राष्ट्रीय चेतना के निर्माण मे पुराण कथाओँ का बडा हाथ होता है। भारतीय जन मानस पर इनका गहरा प्रभाव है।  सुधार, प्रगति या आधुनिकता के नाम पर अचेतन जनमानस और पुराण कथाओँ से आज का काव्य अछूता , असँपृक्त रहे , यह उचित नहीँ। '
                        Narendra Sharma understood the changing social scene and  the changing modern mind. Thus he & Mr Pai were first to introduce Ramayan & Mahabharat , via  Indrajaal comic strip for children. 
         Singer Late Shri MUKESH ji recorded Ram Charit Manas under his supervision for HMV. Among many other private albums  are  ' Prem, Bhakti, Mukti' , Ram Shyam Gu Gaan '& others. 
                      19 Books of Poems  like  ] most famous ' Prawasee Ke Geet ' ( songs of a Traveler ) ' Hans - Mala, ( garland of Swan )   ' Rakt - chandan ( on Gandhiji ) , Agni - Shasya ( child of Fire )  Kadlee - Van,  Draupadi , Uttar Jai, Bahut Raat Gaye etc & short stories  like Arti ki Thali , Kadvi Mithee Baatein &  innumerable Radio plays, Essays, Film songs, Dance Ballets ( for Sachin Shankar : Mermaid & Fishermen )  etc remain in 16 volume  Entire work of Pandit Narendra Sharma's ' Rachnawali ' 
               
 Here , Janab Rifat Sarosh sahab writes about how Vividh Bharti came into being. Linkhttp://radionamaa.blogspot.com/2007/11/blog-post_29.html
             
 His Guidance for Durga Sapt Shatee ' sung by Anuradha Paudwal , Concepts like MAHABHARAT T.V series  & title songs like ' Satyam Shivam Sunderam '&' Atha Shree Mahabharat Katha'  his speeches to graduating students @ IIT Powai , Mumbai on Indian alphabets, OM symbol &  many others  Essays on topics like History of Hindi Film Music & ' Hindi Sahitya ka itihas ' etc remain with us. Do please see this link : 
Geet Ka Safar : Sahitya se Film tak :

For film : ' Meera Dubbing of Tamil Lyrics into Hindi was accomplished by Narendra Sharma  for Nightingale Shri Subhalaxmi ji.  She says  : 
 T. Sadashivam 
M. S. Subbulaxmi
SAVANT :
" The name Pandit Narendra Sharma is dear to us for nearly half a century. When a few years ago, someone suggested that Smt. Subbulaxmi should sing the Hindi renderings of the Tamil song of the Maha Kavi Subramanyam Bharti, we , spontaneously thought of Pandit Narendra Sharma to translate a few songs of poet Bharti into Hindi." 
 During the production of my " Meera " in which Smt. Subbulaxmi was featured as Bhakta Meera, Shri Narendra Sharma's association was of immense help to us. While we admired him as a great poet and a " Savant " in Hindi Literature we admired him as he was just simple and lovable. His fragile image with a beauty and friendly smile present all the time on his face could never be forgotten.

MS Subbulaxmiji sang the "Mangal - Geetam " when my mother Smt. Susheela Narendra Sharma entered as a newly married bride and Sri Amrutlal Nagarji's wife Pratibhaji made Susheela stand on huge brass platter, filled with Kumkum filled water and she stepped like a ' Laxmi ' entering a home. Suraiyaji , the famous songstress also sang songs to welcome the Bride ! Other Guests in Baraat were famous Cine - stars like Sri Ashok Kumar, Dilip Kumar, music director Sri Anil Biswas, Bansuree vadak Sri Panna Lal Ghosh, director brothers Sri Chetan Ananda & Vijay Anand , The famous Chhayawadi poet Sri Sumitra Nandan Pantji , Sri Ramananda Sagar ji , Urdu poet Safdar " Aah " sahab amd many other from Bombay Talkies and Hindi literrarry & Film circle. Art fraternity, also was represented in large number as my mother Susheela was a Fine Arts graduate from Haldenker 's Institute . Their wedding card had an Easel shaped like a Lotus Leaf & a PEN was inserted in the middle in form of a brush !
  Remembers  Swar Samragnee Su Shri Lata Mangeshkar Didi ji,  in an article : 
From an article :
"I was deeply touched when Ustad Ali Akbar Khan requested me to sing the title song of Aandhiyan penned by renowned lyricist, Narendra Sharma. I cried after recording the title song, ' Aye kisi ki shaadmani,' which he composed so well with minimum number of instruments emphasizing on my voice and delivery during the mukhdas and antaras. I did not charge producer Dev Anand a single penny for the song."

Link -
                    The Innugural song for ASIAD Games @ New Delhi, ' Swagatam Shubh Swagatam ' , The Innugural song for Vividh Bharti composed by Pandit Ravi Shankar ,  " Nach Re Mayura ' composed by Anil Biswas & sung by Manna Dey , Two of legendry Subhrahmaniyam Bharti's poems ,' Swasti ~ Shri '& ' Jaynaad '&  Kannada poet Shivruddrappa's poem ' Purush sukta ' in Hindi  as ' Nav Bharat Purush ' ,  ' Surdas A Minstrel of Shri Krishna ' ,  Tagore's poem ' Shei din dujone '  transformed as ,  Nain Deewaane, ik nahin maane , kare man maani maane na ' in Suraiya's lilting sweet voice and Marathee Kavi Shri Tambe's poem in Hindi emerged as '  Madhu mang na mere madhur meet ' sung by Shri Sudhir Phadke for Doordarshan in a LIVE telecast from Mumbai. etc are among the many gems that glitter on. 
            Our Family Home : & My Memories: 

family
पँडित नरेन्द्र शर्मा, श्रीमती सुशीला शर्मा तथा २ बहनेँ वासवी (गोद मेँ है शौनक छोटा सा और पुत्र मौलिक) बाँधवी (बच्चे- कुँजम, दीपम ) लावण्या (बच्चे -सिँदुर व सोपान) और भाई परितोष घर के बारामदे मेँ
आज याद करूँ तब ये क्षण भी स्मृति मेँ कौँध - कौँध जाते हैँ.


(अ) हम बच्चे दोपहरी मेँ जब सारे बडे सो रहे थे। पडोस के माणिक दादा के घर से कच्चे पक्के आम तोड करकिलकारीयाँ भर रहे थे कि,अचानक पापाजी वहाँ आ पहुँचे। गरज कर कहा,"अरे! यह आम पूछे बिना क्योँ तोडे जाओजाकर माफी माँगो और फल लौटा दो"एक तो चोरी करते पकडे गए और उपर से माफी माँगनी पडी ! परन्तु इस घटना के बाद, हम बच्चे अपने और पराये की वस्तु  का भेद आज तक भूल नही पाए। यही उनकी शिक्षा थी। 
(ब) मेरी उम्र होगी कोई ८ या ९ साल की पापाजी नेकवि शिरोमणि कवि कालिदास की कृति"मेघदूत"से पढनेको कहा। सँस्कृत कठिन थी परँतुजहाँ कहीँ मैँ लडखडातीवे मेरा उच्चारण शुध्ध कर देते। आजपूजा करते समयहर श्लोक के साथ ये पल याद आते हैँ। 
(क)   सिँदूर के जन्म के बाद जब भी रात को उठतीपापामेरे पास सहारा देतेमिल जाते।  मुझसे कहते, "बेटामैँ हूँयहाँ" आज मेरी बिटिया की प्रसूती के बाद,यही वात्सल्य उँडेलते समय,पापाजी की निस्छलप्रेम मय वाणी औरस्पर्श का अनुभव हो जाता है। जीवन अत्ततित के गर्भ से उदित होकर,भविष्य को सँजोता आगे बढ रहा है। 

Late Poet Dr. Hariwans Rai ' Bachchan ji 's tribute on 60 th Birthday of his friend : " योँ तो नरेन्द्र जी इन चालीस वर्षोँ मेँ हमारी हिन्दी कविता जितने सोपानोँ से होकर निकली है, उन सब पर बराबर पाँव रखते हुए चले हैं .   शायद प्रारम्भिक छायावादी, उसके बाद जीवन के सँपर्क माँसलता लेते हुए ऐसी कविताएँ, प्रगतिशील कविताएँ, दार्शनिक कविताएँ, सब सोपानोँ मेँ इनकी अपनी छाप है. ...मैँ आपसे यह कहना चाहता हूँ कि प्रेमानुभूति के कवि के रुप मेँ नरेँद्रजी मेँ जितनी सूक्षमताएँ हैँ और जितना उद्`बोधन है , मैँ कोई एक्जाज़्रेशन ( अतिशयोक्ति ) नहीँ कर रहा हूँ , वह आपको हिन्दी के किसी कवि मेँ नहीँ मिलेँगीँ उस समय को जब मैँ याद करता हूँ , तो मुझे ऐसा लगता है , भाषाओँ से हमारी कविता ने एक ऐसी भूमि छूई थी और एक ऐसा साहस दिखलाया था, जो साहस छायावादी कवियोँ मेँ नहीँ है ! वह जीवन से निकट अनुभूतियोँ से ऊपर उठकर ऊपर चला जाता था, यानी उसको छिपाने के लिये , छिपाने के लिये तो नहँ, कमसे कम शायद वह परम्परा नहीँ थी ! इस वास्ते उस भूमि को वे छूते ही नहीँ थे , लेकिन जन नरेन्द्र आये, तो उन्होँने जीवन की ऐसी अनुभूतियोँ को वाणी दी, जिनको छूने का साहस, जिनको कहने का साहस, लोगोँमेँ नहीँ था. यह केवल अभिव्यक्ति नहीँ थी, यह केवल प्रेषण नहीँ था, यह उद्`बोधन यानी जिन अनुभूतोयोँ से कवि गुजरा था, उहेँ औरोँ से अनुभूत करा देना था ! नरेन्द्र जी की कविताएँ प्रकृति - सँबँधी भी हैँ ..एक बात मेँ मुझे नरेन्द्रजी से ईर्ष्या थी, वह यह कि जब मैँ केवल गीत ही लिख सका, ये खँडकाव्य भी लिखते रहे और कथाकाव्य मेँ भी इनकी रुचि प्रारम्भ से रही है. मैँ अपनी शुभकामनाएँ इनको देता हूँ , आशीर्वाद देता हूँ और उनसे स्वयम्` , ब्राह्मण ठहरे, आशीर्वाद चाहता हूँ कि भई, मुझे भी ऐसी उम्र दो कि तुम्हारा वैभव और तुम्हारी उन्नति देखता रहूँ !( पँडित नरेन्द्र शर्मा की "षष्ठिपूर्ति "के अवसर पर डा. हरिवँश राय बच्चन के भाषण से साभार उद्`धृत )Link : http://www.anubhuti-hindi.org/gauravgram/narendrasharma/index.htm
http://www.lavanyashah.com/2007/11/blog-post_28.html'Ganga Behti ho kyun ?  ' written by Pandit Narendra Sharma was sung by the  son Assam Late Shri Bhupen Hazarika ji .FLASH BACK :Janab Sadiq ali  writes, ' I greatly cherish my brief but intimate association with Narendra Sharma. He was with me in the A.I.C.C. Secretariat at Allahabad in the late thirties. http://antarman-antarman.blogspot.com/2006/12/some-flash-back.html
२ कविताएँ : 

चलो हम दोनों चलें वहां
भरे जंगल के बीचो बीच,
न कोई आया गया जहां,
चलो हम दोनों चलें वहां।
जहां दिन भर महुआ पर झूल,
रात को चू पड़ते हैं फूल,
बांस के झुरमुट में चुपचाप,
जहां सोये नदियों के कूल 





हरे जंगल के बीचो बीच,
न कोई आया गया जहां,
चलो हम दोनों चलें वहां।

विहंग मृग का ही जहां निवास,
जहां अपने धरती आकाश,
प्रकृति का हो हर कोई दास,
न हो पर इसका कुछ आभास,
भरे जंगल  के बीचो बीच,
न कोई आया गया जहां,
चलो हम दोनों चलें वहां।
आषाढ़ 
~~~~~~
पकी जामुन के रँग की पाग
बाँधता आया लो आषाढ़!
अधखुली उसकी आँखों में
झूमता सुधि मद का संसार,
शिथिल-कर सकते नहीं संभाल
खुले लम्बे साफे का भार,
कभी बँधती, खुल पड़ती पाग,
झूमता डगमग पग आषाढ़

सिन्धु शैय्या पर सोई बाल
जिसे आया वह सोती छोड़,
आह, प्रति पग 'अब उसकी याद
खींचती पीछे को, जी तोड़

लगी उड़ने आँधी में पाग
झूमता ड़गमग पग आषाढ़!
हर्ष विस्मय से आँखें फाड़
देखती कृषक सुतायें जाग,
नाचने लगे रोर सुन मोर
लगी भुझने जंगल की आग
हाँथ से छुट खुल पड़ती पाग,
झूमता डगमग पग आषाढ़!

ज़री का पल्ला उड़ उड़ आज
कभी हिल झिलमिल नभ केबीच,
बन गया विद्युत द्युति, आलोक
सूर्य शशि उडु के उर से खींच!
कौंध नभ का उर उड़ती पाग,
झूमता डगमग पग आषाढ़!

उड़ गयी सहसा सिर से पाग-
छा गये नभ में घन घनघोर!
छुट गई सहसा कर से पाग-
बढा आँधी पानी का जोर!

लिपट लो गई मुझी से पाग,
झूमता डगमग पग आषाढ़!
रचनाकार:
- पंडित नरेंद्र शर्मा
Pandit Narendra Sharma passed away on Feb. 11th 1989. 
in an article Snehal B. Oza writes :
' Today is Pandit Narendra Sharma's  death  anniversary.  Poet  par
excellence, as he was, who wrote gems like 'Baandh Priti Phul
Dor', 'Aise Hain Sukh Sapan Hamaare' , 'Man Mor Hua Matwala',
'Nain Diwaane Ik Nahi Maane','Jyoti Kalash Chhalke',
 "Panchhi Aur Pardesi Dono Nahi Kisi Ke Meet' etc. etc. 
 He belonged to a  class  of  poets  to  have  blessed  the  film industry  that  included besides  him at the top there people
like Kedar Sharma, Pradeep, Sarawati Kumar "Deepak", 
 Pt.  Bharat Vyas,  Pt.  B  C  Madhur,  Pt. Indra and others,
 carving a way oftheir own, using "shudhdh hindi".
 I believe,  what  Panditji  hasachieved  is  matched  by  very few. 
To reach at the bottom of an ordinary man's heart with such a clear and high class quality  in poetry 
shows class of a maestro.'
I thank ALLwho stop by here for this opportunity to share my thoughts for reading my humble Tribute 
- लावण्या

वीकेंड डीनर पार्टी / सप्ताहांत में शाम की दावत

$
0
0

ॐ 
'अरी सुनती हो ? वीकेन्ड ( सप्ताहांत )  मेमोरियल दिवस आ रहा है। ४ दिन की छुट्टी है। ' 
 ६०  वर्षीया सरिता जी ने अपनी बेटी अंजू से कुछ उत्साह भरे स्वर में सूचित करते हुए कहा तो अंजू अपने बालों पे ब्रश फेरते हुए मुडी ! ड्रेसिंग टेबल के बड़े अंडे के आकार के विशाल शीशे के सामने  जो उसका ड्रेसिंग टेबल था वहां उस शीशे के सामने रखे छोटे से वेलवेट से बने गद्दीदार  छोटे मुड्ढेनुमा सीट पर बैठे हुए वह पीछे की ओर घूम गयी और मुस्कुराई ! 
'अरे वाह माँ ! आपको तो अब सब याद  रहता है !  ' 
 फिर अंजू आगे बोली ,
 ' हाँ माँ ..सभी की छुट्टी है और हमारे यहाँ पार्टी भी तो है ! करीब ६० लोगों का खाना और दावत ! 
आप की सहेली  दिव्या जी पटेल भी आ रहीं हैं। आपका मन लगेगा। 'अंजू ने कहा। 
'हाँ , दिव्या बेन से मिल कर पूरे गुजराती समाज की बातें सुनतीं रहती हूँ। कितनी तरक्की कर गये हैं ये लोग सच! 
बड़े मेहनती होते  हैं पटेल कौम के लोग  ! दिव्या बेन और धनजी भाई जब यहाँ आये थे तब उन्होंने कड़ी मेहनत  की थी। मोटेल का सारा काम किया करते थे वे लोग ! सारे  कमरे तैयार करना , बाथरूम साफ़ करना , सारी चद्दरों की तौलियों और तकीये के गिलाफों को धोना फिर हर आनेवाले किरायेदार के लिए नये सिरे से कमरा तैयार करना कोइ मजाक नहीं ! बाबा रे ! कड़ी मेहनत है !  धनजी भाई दिन रात मोटेल की ऑफिस  डेस्क पर बैठे हुए  मिलते। वहीं  पे सारा हिसाब देखते थे। ये सारा काम उन दोनों ने मिलकर किया और साथ, साथ बच्चे भी बड़े किये। बेटा सुधीर का ब्याह गुजरात जाकर किया और बेटी कुमुद को इसी शहर के भाईलाल भाई पटेल के घर ब्याह कर  बिदा किया ! सच पटेलों की कौम में सब एक दुसरे की बहुत मदद करते हैं। हाँ , औरों की मदद भी करते ही हैं।'   सरिता जी ने आगे जोड़ते हुए कहा,  'पता है ,  दिव्या जी एक बार बतला रहीं थीं कि ,  उनके पुरखे गुजरात के खेडा जिला के नडीयाद शहर से हैं।  दिव्या बेन ' कितना मीठा ' जय श्री कृष्ण 'कहतीं हैं, हैं  ना !  
'सरिता जी उत्साह से  भर कर आगे कहने लगीं , 
' वे , जब भारत में थीं तब रोज ही डाकोर के कृष्ण मंदिर में दर्शन करने  जाया करतीं थीं ! बड़ी कृष्ण -  भक्त  हैं दिव्या बेन। पता है अंजू  , डाकोर के कृष्ण मंदिर  में  किशन महाराज  के 'रणछोड राय स्वरूप 'की पूजा होती है। बड़ा पुराना मंदिर है वहां डाकोर में! ' 
इतना कहकर  सरिता जी, अपनी हम उम्र सहेली  दिव्या जी की बतलाई  बातों में खो गईं। 
फिर उठ कर खिड़की के पास जा खडी हो गईं। फिर अचानक बोलीं , 
'अरी अंजू , आज तुम्हारा घास काटनेवाला आया ही नहीं ! तुमने कहा था न , कि वह दोपहर को आयेगा। मैं राह देखती रही ... पर आज तो कोइ आया ही नही। ' 
                 अमरीकी घरों के आसपास की हरियाली बसंत आगमन के साथ ही चारों दिशाओं में हरीतिमा बिखेरती फ़ैल रही थी। हरेक सुन्दर सजीले घर के आसपास की जमीन में विशाल घास के लोन बिछे हुए थे। एक आधुनिक फैले हुए , २000  एकड़ के रेसीडनशियल सब -डिवीजन में,  अंजू और सत्येन्द्र श्रीवास्तव का घर भी था। 
सरिता जी के  दामाद , सत्येन पेशे से इंजीनीयर थे और वे दामाद से अधिक पुत्र की तरह व्यवहार किया करते थे। अंजू सोफ्टवेर डीज़ाईनार थी। दोनों मिलकर अच्छी कमाई कर लेते थे। खर्च करने में भी दोनों साथ मिलकर निर्णय लिया करते थे। उन्होंने घर के आस पास उगी हुई घास काटने का कोंट्रेक, बाहर एक कर्मचारी को दे रखा था।
यूं भी भारतीय परिवार , अमरीकी समाज के अन्य नागरिकों  मुकाबले में , कम ही शारीरिक परिश्रम वाले कार्य किया करते हैं। ये बात भी हरेक भारतीय को, अमरीकी समाज में लम्बे समय से रहने के बाद पता लग ही जाया करती है।
      घर साफ़ करने के लिए भी हर १५ दिन में,  ठीक सोमवार को मुस्कुराती हुई कन्या  ' एरिका ' और  उसका दोस्त ' यूरी ' ,  एकाध नई लडकी को काम में मदद के लिए , लेकर ,  मुस्कुराते हुए  श्रीवास्तव परिवार के सुन्दर और विशाल घर पर आ पहुँचते थे। वे दोनों ईस्ट यूरोप से यहाँ अमरीका आये थे और अमरीका में सफाई का काम किया करते थे। वे लोग कुछ साल पुरानी गाडी में ही यहाँ तक आया करते। दोनों ने पढाई,  शायद स्कुल की ११ वीं कक्षा तक ही पूरी की थी। यूरी और एरिका का काम था बाथरूम की सफाई करना। पूरे घर के कालीनों पर वेक्यूम क्लीनर से नही के बराबर का - कचरा उठाना और हल्की सी धुल झटकना - डस्टिंग करना - यह भी इनके जिम्मे था। घर इतना बड़ा था कि सफाई करते ४ घंटे का समय तो अवश्य लग ही जाता था। जिसके उन्हें हर घंटे के हिसाब से डालर २५ मिलते थे। और हाँ, उस पे टेक्स भी तो नहीं देना पड़ता था। अन्यथा हर अमरीकी नागरिक खुशी से अपने हिस्से आया टेक्स भर ही देता था। चूँकि टेक्स का पैसा सरकार भी रास्तों को सुन्दर और स्वच्छ रखने से लेकर, स्कुल ,  आप जहां रहते हों उसी इलाके के स्कुल के लिए और अच्छे अस्पताल जैसी कई सुविधा  और अपने नागरिकों की सेवा के लिए खूब इस्तेमाल किया करती थी। हर शहर के साफ़ , सुन्दर और सरल रास्तों के पास, बाग़ और खेल के मैदानों के पास लिखा रहता था 'आपका टेक्स आपके लिए कार्यरत है '  
              यहाँ अमरीका में अक्सर सारे घर बंद रहते। गर्मियों में भी और सर्दीयों भी !  बड़े घरों में सेन्ट्रल एयर कंडीश्नींग माने पूरा घर वातानुकूलित होने से ,  हर घर की खिडकियों को अक्सर बंद ही रखा जाता। घर में रहनेवाले , गराज में खडीं लम्बी आरामदेह , वातानुकूलित गाडीयों पे सवार हो,  काम के लिए सुबह सवेरे निकल लेते और शाम ६ बजे तक लौट आते। गेरेज में अक्सर हर सुखी भारतीय परिवार के घर पर दुसरा फ्रीज भी रखा मिल जाता। ग्रोसरी , खाने पीने की चीजें यहीं लाकर रख दीं जातीं। हाथ पोंछने के कागज़ के रूमालों का पुलिंदा , बाथ रूम टिश्यु के बड़े पैकेज, लौंड्री डिटर्जन्ट के लिए प्रयुक्त  साबुन से भरे प्लास्टिक के बड़े बड़े थैले और दूध भी सुफेद प्लास्टिक की बड़ी २ गेलन की शीशी नुमा बरनी दूध की अतिरिक्त प्लास्टिक की सुफेद शीशी  सी  बाहर के इस दुसरे फ्रीज में जमा रहतीं।   
           अक्सर दिन के समय में , अंजू के घर पर सरिता जी और उनके ४३ साल से  विवाहीत श्रीमान देवेश्वर दयाल जी ही रह जाते। छोटा समीर ३ साल का होने आ रहा था। वो भी इनके पास ही दिनभर रहता। वे बिटिया और दामाद के पास, हर साल भारत से आया करते और कुछ माह बिताते। अंजू, सरिता जी और अपने पापा के आगमन से निश्चिंत हो , समीर को २ महीने तक बड़ा करने के बाद फिर अपनी जॉब पर जाने लगी थी। उसी दो महीने तक सत्येन्द्र के पिता जी और माता जी भी भारत से अपने धेवते को लाड दुलार करने आ पहुंचे थे। 
उस समय घर भरा पूरा लगता ! दोनों समधी जोड़ों ने समीर के आगमन के समय,  सराहा दिया था  और उनमें आपस में शिष्टाचार पूर्ण  सौहार्द्र और अनौपचारिकता,  अमरीका में एक साथ , इस तरह रहने से ही पनपी थी। 
अमरीका में क्या बेटी और क्या दामाद का घर ! ये तो परदेस ठहरा !
 यहाँ हर भारतीय परिवार अपने परिवेश और अपने आपसी संबंधों के सहारे ही नव निर्माण की कठिन परीक्षा पास कर पाता है। आपस में भारतीय मित्र , पूछते की बच्चे के जन्म के समय कौन आ रहा है भारत से ?
 अगर उत्तर मिलता कि , किसी की माँ या सास ! तो खुशी होती अन्यथा हम उमर सहेलियाँ भारतीय और अमरीकन और पडौस के  लोग भी अगर मित्रता  होती तो सहायता करते।
 अंजू और सत्येन उनके अमरीकी और भारतीय तथा अन्य सभी मित्रों के लिए , एक उदाहरण से थे। दोनों तरफ के माँ बाबूजी और अम्मा पिताजी यहाँ तक आ कर उन्हें सहायता क रहे थे ये सभी के लिए आनंद का विषय था। 

  अंजू और सत्येन  की ७ साल की बड़ी बिटिया '  मिली ' और  ३ साल के 'समीर 'को सरिता जी ने ही तो बड़े जतन से , लाड प्यार से पाला पोसा था। दादी जी भी खूब लाड करतीं रहीं परन्तु ३ माह पूरे होने से पहले वे बड़े दादा जी के संग भारत चली गईं थीं। नाना जी और नानी जी को आग्रह पूर्वक रोक लिया गया था।  आज इतने बड़े हुए अपने नातिनों को देख दोनों फूले नहीं समाते थे। 
 मिली बिटिया को स्कुल ले जाने के लिए ,  पीले रंग की  लम्बी सी स्कूल बस सुबह सुबह आ जाया करती थी उसे बस पर सरिता जी ही चढ़ा कर लौटतीं तब तक देवेश्वर जी सुबह की चाय पीकर , लम्बे बारामदे में घूम रहे होते  और अब तो छोटा समीर भी बस अब प्री - स्कुल में दाखिला लेने ही वाला था। 
     घास काटने वाले के ना आने की बात माँ से सुनकर  , अंजू  मुस्कुराई  और कहा 
'माँ , तुम हो यहाँ तो हमे कितनी सुविधा है। घर की हर बात पे तुम्हारी नजर रहती है! चिंता न करो ! वो आ जाएगा ..आज नहीं तो कल ..हाँ मैं, सत्येन से कहूँगी वे टेक्स मेसेज कर लेंगें और पूछ लेंगें। ' 
         घास काटने के लिए अक्सर मेक्सिकन आदमी आया करता था जो अपने टेम्पो के पीछे मशीन लाद  कर आता। काम करना और हरेक काम करने वालों का उचित आदर करना भी  समाज के शिष्टाचार का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। यहाँ हरेक व्यक्ति अपना निजी काम स्वयं करता है। अगर आप सक्षम हैं तब किसी और से भी अगर काम करवाते हैं तब उसे भी बड़े  सम्मान से ही देखा जाता है। 
 अब अंजू ने माँ से पूछा  'चलें माँ ? ' 
और ओफीस के कपड़े उतार  के गुलाबी  टी शर्ट बदल कर, नीचे जाने के लिए वह  उठ खडी हुई। फिर सीढीयों के पास रूक कर पूछा 
'चाय बनाऊँ माँ  ? अदरख और इलायची वाली ? पापा से भी पूछ लेती हूँ। ' 
 'हाँ ' ,  सरिता जी ने खिड़की के सामने खड़े हुए  ही संक्षिप्त सा जवाब दिया। 
 कुछ देर पश्चात , गर्म चाय के मग लेकर तीनों ड्राईंग रूम के आरामदेह सोफों पे बैठ गये। 
सरिता जी ने पूछ लिया 'अंजू  बेटा , कुछ तैयारी करनी है क्या ? बता दे ...' 
'ऊँह  नही माँ ...खाना तो आ ही रहा है ..इंडिया स्टार रेस्तोरां  से ..
वही लोग आकर सजा देंगें। समोसा चाट भी बनायेंगें मानविंदर जी ..
वही हैं आज शाम की दावत के केटरर ..वे भी  रुकेंगें ..गरम खाना खिलायेंगे हम सब को ! 
कुल्फी और उनका फेमस , गज्जरेला ! गाजर हलवा भी फ्रेश बना रहे हैं। 
मैने खास रिक्वेस्ट की है तो  मेंगो कुल्फी भी बनायेंगें आज शाम की दावत के लिए ! '
         अंजू अब  धडा धड शाम की दावत के विभिन्न आईटम का मेन्यू बतलाने लगी। आगे बोली , 
'हाँ एपीटाइजर के लिए , टमाटर साल्सा, कोर्न  चिप्स और गर्म चीज़ की मशीन मैं शाम को ऑन कर दूंगी। 
सुपर मार्केट से कटे फलों की फ़्रूट - ट्रे भी सत्येन ला रहे हैं। '
            फिर मुस्कुराकर जोड़ा ' एक सरप्राईज़ भी है ! मेरी सहेली आशी और सुचेत चड्ढा की २५ वीं सिल्वर जुबली है।  उनकी मैरेज एनीवर्सरी भी है ना इसी सन्डे को ! तो उनके लिए डबल चोकलेट  केक भी लायेंगे सत्येन ! 'अंजू ने अपने माता पिता को आगाह करते हुए बतला दिया। 
  'तब तो समझो सारा काम हो ही गया ' सरिता जी ने आश्वस्त हो, मुस्कुराते हुए कहा। 
 'माँ आज की शाम के लिए एक्स्ट्रा बेबी सीटर भी आ रहीं हैं। जूली है ना हमारे पडौसवाली लडकी वो तो आ ही गयी है। खेल रहे हैं तीनों ' मिली ' के कमरे में 'अंजू ने बतलाया। 
          मिली का अपना अलग कमरा था। जिसे 'टिंकर बेल 'नामक परी की साज सज्जा से संवारा गया था और वह कमरा हल्के गुलाबी रंग का था। नन्हे समीर के कमरे में  'वीनी ध पू 'की सजावट थी। हालांकि बच्चे सोते तो अपने कमरों में थे पर कई बार सुबह उठ कर,  या तो सरिता जी या अंजू के कमरे में आ जाया करते थे। सुबह घर के सारे सदस्य काम के लिए निकलने की तैयारी करने में बड़े और मिली को, स्कुल के लिए तैयार किया जाता। 
अंजू सुबह ५ बजे उठ जाया करती थी और दिन भर खूब काम किया करती थी। 
            अंजू और सत्येन्द्र का घर काफी बड़ा था। नीचे लीवींग रूम या परिवार के लिए एक साथ बैठ कर टीवी देखने का कमरा अलग, फॉर्मल ड्राईंग रूम अलग, बड़ा सा कीचन घर के मध्य भाग में और उसी के बाहर दो सीढियां थी जो  ऊपर ४ बड़े शयन कक्ष थे वहां पहुंचतीं थीं । घुमावदार सीढियां ऊपर तक आतीं और एक के बाद एक कमरे जहां एकदम आखिर वाला कमरा सरिता जी और देवेश्वर जी के लिए सुरक्षित था। 
जब वे भारत लौट जाते तब भी उनकी सुविधा लिए सजाई हरेक चीज़ वैसी ही रखी रहतीं।  
कोइ किसी भी चीज को छेड़ता न था। उनके लिए एक छोटा टीवी भी था कमरे में ।  
२ दराज वाली  मेज  बिस्तर के दोनों तरफ  सटी  हुईं थीं।  जिस पे लेम्प और टेलीफोन रखे हुए थे।  
घड़ी , फूलदानी और शीशे से सजी कपड़ों के रखने की ड्रेसर पलंग के सामने थी  और कमरे से बाहर निकलते ही गुसलखाना भी था !  
        अंजू और सत्येन्द्र का सोने का कमरा सबसे बड़ा था और वहां बाथरूम कमरे के भीतर ही था और वोक इन क्लोजेट  माने कपड़ों के लिए  जगह थी जो बहोत  विशाल थी। नीचे तहखाना भी पूरा कार्पेट  से सजा , वहां भी सोने के कमरे, बाथरूम , पार्टी के लिए लंबा  कमरा और बच्चों की फ़ौज बाहर शीत ऋतु  के प्रकोप से बचे हुए भीतर खेल सके इतनी बड़ी जगह थी। असंख्य  खिलौने और एक बड़ा टीवी यहाँ बेज्मेन्ट में भी था।       अत्यंत  आरामदेह और विशाल  घर था !  शायद ८ हजार स्क्वेर फुट में फैला हुआ था ऐसा इक बार अंजू ने ही बातों बातों में बतलाया था। सारे कमरे, आराम और सुख प्रधान साज सज्जा से लैस थे !   
     अंजू ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा ,
'माँ  जूली की और २ सहेलियाँ भी शाम ६ बजे आ जायेंगीं। जितने बच्चे आयेंगें ना मेहमानों के संग , उन के साथ ये लोग रहेंगें तो बड़े भी एन्जॉय कर पायेंगें।  'अंजू ने आगे बतलाया। 
        अमरीका में बेबी सीटींग का काम अक्सर आसपास रहनेवाली बड़ी लडकियाँ ही किया करतीं हैं। उसी तरह  मिली और समीर की बेबी सीटर ,  १४  वर्षीया सुनहरे बालोंवाली , नीली  आसमानी आंखोंवाली ' जूली ' का घर भी उन के घर से,  तीसरे घर वाला, नजदीक ही था। जूली के पिता उच्च पद पर आसीन पुलिस अधिकारी थे और कई बार पुलिस को मिलनेवाली  ख़ास गाडी  जो काली और पीली धारियोंवाली होतीं हैं , उनके घर के ड्राईव - वे पर खडी हुई  देखने को मिल जाया करती थी। जूली के पिता के कमरबंद पर लटकी हुई बन्दूक भी सरिता जी ने  कई बार देखी थी। 
           सरिता जी के पतिदेव श्रीमान देवेश्वर जी ने चाय समाप्त करते हुए अपना मग उठा लिया और रसोई के सिंक में पानी छोड़ कर साफ़ करके , मग को ,  सीधे डीश वोशर में सम्हाल के रख दिया। उन्हें भी यहाँ की आदत हो चुकी थी। अमरीका में लोग अपने अपने बर्तन इस्तेमाल करते और इसी तरह डिश वोशीन्ग मशीन में लगा देते ! जब मशीन भर जाती तब मशीन में इस्तेमाल होनेवाली ख़ास साबुन की टिकिया या लिक्वीड प्रवाही साबुन को मशीन के बाहरी दरवाजे में बने खाने में भरने के बाद , मशीन  बंद किया जाता और मशीन की सेटिंग में नार्मल वोश साईकल लगाकर सारे बर्तन एक साथ धुल जाया करते। 
         यहाँ ऐसे छोटे बड़े घर के कार्य मशीन ही करतीं हैं। कपड़े धोने का साबुन अलग, बर्तनों का अलग ! नहाने के के लिए नाना प्रकार के द्रव्य !  प्रवाही, जेल, साबुन और टिकिया, स्नान के बाद ठण्ड में त्वचा मुलायम रखने का लोशन भीअलग। हरेक उत्पाद  में सुगंध! बाथरूम की शीशे की नन्ही बेसीन के पास लगी अलमारी में सरिता जी का नारियल का पेरेशूट ब्रांड का तेल भी रखा हुआ था और दन्त मंजन भी ! 
             घर के हर कमरे में सुगंध बिखेरने के लिए सुगंधी मोम के गट्टे के आकार की सेंटेड केंडल भी शाम को अंजू जला दिया करती थी। सत्येन को चन्दन की अगरबत्तियां जलाना पसंद था। 
        एक बड़े से ॐ के सामने , हर शाम चन्दनी सुगंध का धुंआ उठता और सत्येन को अपना बचपन याद आ जाता। अपने जीवन में कितना कठिन संघर्ष किया था सत्येन्द्र ने और उसके  बाबूजी ज्ञानेंद्र श्रीवास्तव और अम्मा सुजाता जी ने भी बड़े जतन से गृहस्थ जीवन बिताते हुए  अपने सारे उत्तर दायित्त्व सफलता पूर्वक निभाये थे।
        यमुना किनारे बसे , पश्चिम उत्तर प्रदेशी इलाके के इटावा में रूई की खेती बाडी बंद हुई तो क्या हुआ पर बाबूजी के घी का व्यापार उनकी सूझ बुझ से चल निकला था। सत्येन्द्र श्रीवास्तव पढाई में सदा अव्वल ही आये और अपना पूरा ध्यान पढाई पे रखते हुए आई . आई . टी .  कानपुर से इन्जीन्यरींग अच्छे नम्बरों से  पास करने के बाद अपना भाग्य आजमाने सत्येन्द्र,  बाबूजी और अम्मा के पैर छूकर , उत्तर अमरीका चले  आये थे। 
                    अमरीका के मध्य में आयोवा प्रांत में  आकर सत्येन्द्र स्थायी हो गये। आयोवा भी इटावा की तरह  खेती प्रधान प्रांत है। आयोवा की राजधानी  का उच्चारण अंग्रेज़ी में डी मोइन '- किया जाता है परन्तु उसे  ' Des - moins ' लिखा जाता है। वहीं विश्व शान्ति में नोबल पुरस्कार प्राप्त नार्मन बोर्लो द्वारा स्थापित विश्व खाध्य पारितोषिक संस्था भी है। नार्मन बार्लो हरित क्रान्ति के जनक कहलाते हैं। संस्था द्वारा ,  डालर एक हजार के खर्च से तैयार होनेवाली ट्रोफी , जिसे  शिल्पकार डेरीक उह्ल्मेन ने तैयार की थी वह हर वर्ष पारितोषिक स्वरूप दी जाती  थी।  विश्व का गोला ,  जिस पर एक पत्ते के रूप में खाद्यान्न बना हुआ था ,  जिससे विश्व भर के प्राणीयों को पोषण मिलता है यही इस इनाम स्वरूप दिए जानेवाली ट्रोफी का रूप था जिसे बड़े जतन से  गढा गया था। 
सत्येन्द्र श्रीवास्तव वर्ल्ड फ़ूड प्राईज़ संस्था में वरिष्ठ कर्मचारी थे। तगड़ा वेतन प्राप्त करनेवाले  इस संस्था के वे  सीनीयर कार्यकर्ता थे। श्रीमती अंजू सत्येन्द्र  श्रीवास्तव आयोवा प्रांतीय सरकारी कर वसूली कार्यालय के कम्प्युटर विभाग में कार्यरत थीं। भारतीय इसी तरह अमरीका के हर प्रांत में , विशिष्ट संस्थाओं में कार्यरत हैं और सफल हैं। 
आयोवा प्रांत : अमरीका के हरेक प्रांत का अपना ध्वज है। इस प्रदेश को 'होक आय स्टेट 'कहते हैं। आयोवा प्रांत का प्रिय फूल जंगली गुलाब है। गोल्ड फिंच या हिन्दी में कहें तो सोने का सिक्का नामक पंछी ,  इस आयोवा स्टेट का चहेता पंछी है। 'ओक 'का पेड़  यहाँ का चयनित हुआ प्रांत का प्रिय वृक्ष है। 
सत्येन्द्र और अंजू अब कई वर्षों से यहीं बस गये हैं  और उनकी संतान अब इसी प्रांत में जन्मीं,  यहीं का नागरिक अधिकार पा कर , पल बढ़ रही है। अब तो कई सारे भारतीय परिवार  आयोवा प्रांत में आ कर बस गये थे और आबाद थे। अब अन्य प्रान्तों की तरह ,  भारतीय मंदिर, गुरुद्वारा और  रेस्तोरां सभी  आयोवा में भी स्थापित हो चुके थे। सरिता जी मंदिर भी जातीं और किसी रविवार वे , गुरूद्वारे भी चली जातीं। 
      वहीं पर आगंतुक प्रवासी भारतीय युवा पीढी के  माता पिताओं से भी जो अपने अपने बाल बच्चों से मिलने आये हुए होते थे , वे , कहीं न कहीं, भारतीय दुकानों में खरीदी करते वक्त या त्यौहार के दिन या  विविध उत्सव पर मिल ही  जाया करतीं थीं।  अब यहाँ रहनेवाले भारतीयों के लिए , भारत से दूर अमरीकी धरा पर , एक छोटा भारत का कोना आबाद था। कार्य क्षेत्र में अमरीका का वातावरण तो होता ही था परन्तु  घर के  रहन सहन में , अब भी भारतीयता का पुट होते हुए , आधुनिक अमरीकी सुख सुविधा और रहन सहन से ओत प्रोत भारतीय परिवारों में भी बदलाव आ ही गया था।  
     अमरीकी समाज की तरह हर उत्सव, शादी ब्याह, नाम करण , मुंडन , वैवाहिक वर्ष गाँठ , जन्म दिन ,  इत्यादी सभी मनाने का रिवाज अब सप्ताहांत माने वीकेंड में यानि ,  शुक्र , शनि  रवि वाले दिनों में ही अक्सर हुआ करता। इसी उत्सव में जुड़ गये थे बच्चों के ११ वीं पास करने के ग्रेज्युएशन दिवस का समारोह या १६ वर्ष पूरे करने की स्वीट सीकस्टीन की पार्टी भी ! इन सारे दिनों में अपना ख़ास स्थान बनानेवालीं  केन्द्रीय छुट्टियाँ या  फेडरल होलीडे वाली ४ दिन की लम्बी छुट्टियां साल में बड़े पहले से ही विविध यात्रा और प्रवास या पारिवारिक समारोह का रूप ले लेतीं थीं। असल में  अमरीका में राष्ट्रीय छुट्टियां बहोत कम होतीं हैं। 
                सब से ख़ास होती है,  बड़े दिन की या नाताल  या क्रिसमस की दीसंबर २५ की छुट्टी ! जिसका हरेक अमरीकी नागरिक को बेसब्री से इंतज़ार रहता है। यह पारिवारिक, धार्मिक और सामाजिक तीनों का सम्मिश्रित त्यौहार है। परिवार के हर सदस्य के लिए तोहफे देने का और  लेने का इस दिन  रिवाज है। फिर  साथ मिलजुल कर भोजन करना।  खाना और  चर्च में पूजा और पादरी का भाषण (  जिसे मॉस कहते हैं ) सुनने जाना,  ये भी  इस नाताल के बड़े दिन अक्सर किया जाता है। उसके बाद के ४ दिन भी ऑफिस या दोस्तों के घरों पर दावतों में या प्रवास में बिताये जाते हैं तब तक तो दीसंबर का आख़िरी दिन पूरा होने को और नये साल के दिन का आगमन हो जाता है। 
      जनवरी १ नये साल की छुट्टी पूरे अमरीका के लिए साल भर की कड़ी मेहनत  के बाद आराम करने और मौज मस्ती से भरी छुट्टी बिताने का दिन होता है। टीवी पे खेल देखना, रोज़ डे परेड का सीधा प्रसारण और खूब वाईन , बीयर और व्हीस्की , वोडका , रम जैसे ड्रींक के साथ अमरीकी खाध्य पदार्थ हेमबर्गर, पीत्ज़ा , चिप्स वगैरह का खाना - ये सब दिन भर चलता  रहता है।  
         साल के मध्य में , मई २७,  मेमोरियल दिवस की छुट्टी आती है जो उत्तर अमरीका में ग्रीष्म ऋतु के आगमन का प्रतीक है। अमरीका में , तारीख लिखते वक्त पहले महीना - फिर दिन और अंत में साल लिखने का रिवाज़ है। 
जब कि , भारत में पहले दिन, बीच में महीना और अंत में साल  लिखते हैं। 
यहाँ  जुलाई ४ अमरीकी स्वतंत्रता दिवस कहलाता है।
 सितम्बर २,  लेबर डे , फोल माने पतझड़ ऋतु के आरम्भ की धोषणा करता है। 
 फिर वेटरन्स डे ९ सितम्बर को पुराने सैनिकों की सेवाओं के प्रति आभार प्रदर्शन का राष्ट्रीय त्यौहार है और द्वीतीय विश्व युध्ध , वियतनाम और ईराक की लड़ाईयों में जिन योध्धाओ ने सेवाएं प्रदान कीं हैं उनके लिए  समर्पित दिन का त्यौहार है।  
उसके बाद आता है नवम्बर २८ का थेंक्स गीवींग डे या  कृतज्ञता ज्ञापन दिवस ! बस यही मुख्य केन्द्रीय सरकार मान्य त्यौहार  हैं जिसे अमरीकी सरकार मनाती है। अब इस श्रृंखला में अश्वेत लोगों के मसीहा माननीय  मार्टिन ल्युथर किंग दिवस भी कहीं कहीं बेंक होलीडे की तरह मनाया जाने लगा है।         
            आज अंजू और सत्येन्द्र के यहाँ मेमोरियल डे के लम्बे सप्ताहांत वाले वीकेंड में शनिवार को शाम की दावत का आयोजन हुआ है। भारतीय परिवार के छोटे और कुछ  बड़े बच्चों समेत कुल  ६० लोग  शनिवार की संध्या की दावत के लिए अंजू के घर पर आ पहुंचे हैं । अमरीकी समाज में अपने अपने कार्यक्षेत्र में सफलता प्राप्त कर उसी के अनुरूप नई , लम्बी चमचमाती गाड़ियां खरीद कर अंजू और सत्येन्द्र के मित्र वर्ग के लोग ,  अंजू के घर के सामने , गोलाकार रास्ते के सामने जिसे 'कल डी सेक ' कहते हैं वहां अपनी अपनी शानदार गाड़ियां पार्क करते हुए 
'नमस्ते ' ,' पैरी पैणा जी ' , कहते हुए,  एक के बाद एक आ रहे हैं।  
 मालिक और मालकिन अब गाड़ियां  पार्क करने के बाद, घर के  भीतर जा चुके थे। सभी के हाथों में फूलों के पुष्प गुच्छ या रंगबिरंगी गिफ्ट बैग भी हैं जो वे अंजू और सत्येन्द्र के परिवार के लिए स्नेह के प्रतीक स्वरूप लाये हैं।  
          सरिता जी और देवेश्वर जी घर के पिछवाड़े में लोन पर रखी, कुर्सियों पे विराजित थे। कुछ उन्हीं की उम्र के भी वहां बैठे फलों का रस गिलास को पेपर नेपकिन से थामे चुस्की लेते पी रहे थे। युवा पीढी की युवतियां अंजू के साथ लगी हुईं थीं और खाने पीने की चीजों को, दुसरे अतिथियों तक पहुंचाने का काम कर रहीं थीं। बच्चा पार्टी बेसमेन्ट माने घर के तहखाने में, बिछे कालीन जो सुघड़ व सुन्दर है वहां  एक  हिस्से में  खेल रहे हैं। मिली और   और जूली और उसकी २ साथिन बेबी सीटर लड़कियाँ सब के साथ तरह तरह के खेल में मग्न थीं। 
 
      'अंजू  नाईस पार्टी ! 'प्रिया सुन्दराजन जो दक्षिण भारतीय थी उसने मुंह में २ काजू के निवाले रखते हुए कहा। 
'थैंक्स प्रिया। हाऊ हैव यू बीन ? व्हाट आर यू बीज़ी विथ ? 'अंजू ने प्रश्न किया। 
( 'धन्यवाद ! कैसी हो ? किस कार्य में व्यस्त हो ? ' ) यही  कहा था अंजू ने प्रिया से ! 
 'ओह रिसर्च नेवर स्टॉप्स यू नो ' प्रिया ने उत्तर दिया। 
प्रिया का कार्यक्षेत्र संशोधन था उसने यही कहा  कि , ( यह काम कभी रूकता नहीं ! )
           खेती से जुड़े संशोधन संस्थान में कार्यरत प्रिया  वरदराजन ने यही उत्तर दिया।
 'ट्र्यू ' -  ('सत्य है !' )  अंजू ने हामी भरी ! 
अब  आशी भी वहीं  गयी थी और पूछने लगी
 'अगले सन्डे गुरूद्वारे आ रही हो ना अंजू ? '
 'हाँ आ जाऊंगी ...मम्मा को लेकर 'अंजू ने कहा। 
'पक्का ? ' 
'हाँ हाँ पक्का ! 'अंजू ने मुस्कुराकर वादा किया और समोसे की चाट से सजी हुईं बड़ी ट्रे को उठाये जहां पुरुष मेहमान बातों में और वाईन बोटलों से सजे काउंटर के इर्द गिर्द खड़े थे वहां पहुँच कर उसने तश्तरियां उन्हें थमाने का काम शुरू किया। 
      'पटेल सर ! क्या कहते हो , कैसी चल रही है आपकी 'कम्फर्ट इन ' ? 
आशी के पतिदेव सुचेत चड्ढा ने दादी जी दिव्या के पुत्र सुधीर पटेल से सवाल किया। 
'श्री कृष्ण की कृपा है दोस्त ! '  सुधीर ने जवाब दिया।
 फिर सुधीर पटेल ने सुचेत से पूछा ,
'आप सुनाओ क्या हालचाल है ? आपके गेस स्टेशन का धंधा तो रोकडे का धंदा है! 
पेट्रोल पम्प का बिजनेस अच्छा ही होगा। दाम तो खूब ऊंचा गया है। '  
'रब्ब राखा ! गुरूजी की मेहर ! 'सुचेत ने मूंछों पे हाथ फेरते कहा। 
 बंगाली बाबू शोमेन  चटर्जी भी मुस्कुराते हुए समोसा चाट की खट्टी  - मीठी चटनी के चटखारे लेते हुए बोले 
'सब भालो है ! आमी एकाऊँटिंग देखबे ना ..
टेक्स रिटर्न फाईल करोछे ते दिन सब भालो बिजनेस खुल जाबे ! ' 
मिसेज चेटर्जी लतिका अपने पति शोमेन  को कोहनी मारते हुए काजल लगी बड़ी बड़ी  आँखों से उसे घूरती हुईं बोलीं 'सोमेन की तुमी ! टेक्स इज़ नेवर फन ! ' ( टेक्स कभी आनन्द दायक नहीं होता ) 
तिका ने कांथा की कढाई से सजी सुन्दर हरी रेशमी साडी बंगाली ढंग से बांधी हुई थी और वह देवदास की पारो सी ही सुन्दर लग रही थी।  
'ओय भाबी , सच्च दस्या 'सुचेत ने मेज पे हाथ ठोंकते हुए जोर से कहा और पूछा 
 'त्वाडी स्कुल कैसी है ? '  
 क्यूंकि लतिका चेटर्जी एक  लोकल स्कुल में मेथ्स की, कक्षा ४ और ५ के बच्चों की टीचर थीं । 
'हेडेक होबे सुचेत ..कभी कभी फन ! '  .
लतिका ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया। उसके दोनों बेटे प्रोबीर और सुबीर भी उसी स्कुल में पढ़ते थे और मिस्टर और मिसेज चेटर्जी भी दो गली पार के मकान में उसी सब डिवीज़न में  रहते थे। 
       'अब ये बताओ चेटर्जी बाबू , कौन से स्टोक खरीदना ? 'सुचेत ने पूछा। 
तब  तो सभी का ध्यान वहीं केन्द्रीत हो गया। अमरीका में स्थायी हुए , भारतीय सफल कार्यकताओं का ये भी एक बहुत बड़ा और महत्त्वपूर्ण विषय है।
 कौन से स्टोक में कड़ी मेहनत  से कमाई गयी अपनी संपत्ति का हिस्सा लगाया जाए ये चिंता,
 सभी भारतीयों के मन में ख़ास  बसी रहती है। 
अब तो  वहां उपस्थित  हरेक ने अपने अपने विचारों के अनुसार स्टोक के नाम गिनवाना शुरू किया।
 कोइ बोला 'सिस्को सीस्टम ' प्योर गोल्ड ' ! 
किसी ने कहा जी. ई . माने 'जनरल  इलेक्ट्रिक  ! '
 तो दुसरा बोला 'ऐप्पल में डालो पैसा ' ..
तीसरे ने 'सुझाया 'माईक्रो सोफ्ट 'भी लेना यार बील गेट्स को भूलना नहीं !' 
अंजू धीरे से मुस्कुराती हुई वहां से खिसक ली। ये सत्येन्द्र का विषय था। वही देखभाल किया करते थे। 
         महिला मण्डल में  साड़ी , गहनों और बच्चों की बातें प्रधान थीं। '
  भारतीय अमरीका में रहें या ईंग्लैंड में या और कहीं ..भारतीय स्वभाव नहीं बदलता ! 'अंजू ने सोचा ! 
'अंजू , शैल्टर पे चलोगी ना ?'  शैल्टर माने वह संस्था जहां निराश्रित और  गरीब व भूखे लोगों को भोजन करवाने का जिम्मा भारतीय कौम के कुछ सदस्य हर माह के किसी भी एक इतवार को ले कर किया करते थे। 
उसी को लेकर आशी ने प्रश्न किया था। अंजू ने भी हामी भरते स्वीकार किया और कहा ,
 'हाँ पक्का , बता देना कौन से दिन चलना है ..आ जाऊंगी। '
 भारतीय लोग अमरीकी नागरिक हैं और कई तरह के सेवा के कार्य भी किया करते हैं।
 शायद अमरीका में आकर बसे,  विश्व के हरेक देश के लोगों  के बीच में रहते हुए 
 भारतीय कौम के लोग,  अमरीका में  प्रादेशिक भेदभाव भूल कर,  
अपने को एकजुट करने में उतने ही सफल हुए हैं जितने अपनी नौकरी और काम धंधे में सफल हो पाए हैं।
 ये भी एक सोचनेवाली बात है। 
     अब  अंजू  बाहर लोन की ओर बढी तो देखा  सरिता जी से,  चेटर्जी दम्पति की माता जी  जो मिस्टर  चेटर्जी की  माता जी थीं और उनका नाम शर्मिष्ठा चेटर्जी था,  वे दिव्या पटेल और सरिता जी से बतिया रहीं थीं
 और बांग्ला मिश्रित अंग्रेज़ी , हिन्दी में दोनों को प्राणायाम की विधि, बड़े स्नेह से सने मीठे स्वर में समझा रहीं थीं। 
  अंजू ने सत्येन्द्र को आवाज़ दी और बुलाकर पूछा  'अब , केक कटवाया जाये ?  '
 सत्येन्द्र ने अंजू से आँख मिलाते हुए मुस्कुराकर हामी भरी और कहा
 'बच्चा पार्टी को बेजमेंट से ऊपर बुला लो अंजू  ! मैं केक लेकर  अभी आया ..' 
कुछ मिनटों में  शादी की २५ वीं वर्षगाँठ के उपलक्ष्य में , मिस्टर  और मिसेज चड्ढा के शुभ हस्त से
डबल  चोकलेट का  केक काटा गया तो  बच्चों ने खूब तालियाँ बजायीं ! 
सभी बड़ों ने आगे बढ़कर उन्हें  आशीर्वाद दीये। 
तब चड्ढा दंपत्ति ने अदब से कमर तक झुककर वहां उपस्थित हर एक  बजुर्गों के बारी बारी से पैर छूए ! 
 तो बच्चे ये क्रिया देखने लगे ! वे  देख रहे थे और युवा पीढी भी देख रही थी। 
वे सभी  शायद भारतीय परम्पराओं की जड़ों को अमरीका की नई धरा पर फिर उगता हुआ महसूस कर रहे थे। बड़ों की आँखों में उमड़ी ममता छलक आयी थी !  दूर छूटी भारत की मिट्टी की सोंधी खुशबु का झोंका आयोवा प्रान्त की धरती पे , सरसराता हुआ सभी के मन को सहलाता हुआ निकल गया था।  
        बुजुर्ग वर्ग सोच रहा था कि ,  उन्हें अपने जीवन  की संध्या में , खिलते  हुए नये पुष्प की अभिलाषा  स्वरूप धेवते और नाती नातिन का प्यार  ही शायद इतनी दूर, अपने  वतन से दूर, सात  समंदर पार , अमरीका की धरा तक खींच लाया था। 
      'मूल से ब्याज धन अधिक प्यारा लगता है न दिव्या बेन  'सरिता जी ने धीमे स्वर में कहा। 
जिसे सुनकर दिव्या पटेल भी आशय समझ गयीं और सरिता जी का हाथ थामे हुए, 
 घर के भीतर ले चलीं और कहा
 'व्हाला  सरिता बेन , ( प्यारी सरिता बहन )  हम लोग नसीबदार हैं। 
हमारे बच्चे इतने अच्छे हैं। हमारे पैर छूते हैं! इज्जत देते हैं !  
वो भी देखो न , अमेरिका में सफल होकर भी परम्परा को,  रीत रिवाज़ को भूल्या नथी! 
रणछोड़ राय सुखी करे बधा ने ' ( श्रीकृष्ण सब को सुखी रखें ) ! 
 दिव्या बेन ने गुजराती में बात ख़त्म करते हुए कहा तो सरिता जी से मुस्कुराए बिना रहा न गया। 
 उन्होंने दिव्या बेन का हाथ अपनी हथेली में कस कर पकड़ते हुए कहा, 
'इस बार डाकोर मंदिर के दर्शन करने हम लोग भी आप जब नडीयाद जायेंगीं तब आ जायेंगें।
क्यों जी , आप क्या कहते हैं ? ' अपने पतिदेव को वार्तालाप में शामिल करते हुए सरिता जी ने प्रश्न किया । 
'हाँ तुम्हारी इच्छा है तो चले चलेंगें ..दिव्या बेन और धनजी भाई पटेल जब वहां होंगें तब अवश्य जायेंगें। ' 
देवेश्वर जी ने जब ये कहा तो दिव्या बेन और उनके पति धनजीभाई पटेल भी प्रसन्न हो गये।
 'हा हा , देव भाई .. आवोने एक वार अमारे आँगणे ..तमने डाकोर ना गोटा, ने पेंडा नो भोग जमाड़शुं '  
 धनजी भाई ने डाकोर के सुप्रसिध्ध  पेडों और भजियों का जिक्र करते हुए भावभीना निमंत्रण सामने रख दिया। 
'कहाँ  की तैयारी है बा ? ' 
वहां आ पहुंचे सत्येन्द्र ने दिव्या बेन पटेल से प्रश्न किया तो  धनजी भाई पटेल ने कहा ,
'अब तो वानप्रस्थ आ गया ना ..तो वन में कुञ्ज बिहारी लाल की जय जय कार करने, 
जात्रा पे जाने का कार्यक्रम करते हैं बेटा ! ' 
उनकी बात सुनकर चारों बुजुर्ग मुस्कुराने लगे ..
'पर बा , आप लोगों  के धेवते , नाती आपके बगैर सूने हो जायेंगें !  
अगर आप लोग गये तो यहाँ ऐसी रौनक थोड़े ना रहेगी! 'सत्येन्द्र ने कहा। 
अंजू और अन्य कई सारे मेहमान भी वहां आकर खड़े हो गये और बात सुनने लगे थे । 
' बेटा ! रौनक तो बच्चों से होती है हम बुढ़ों से नहीं ! 'दिव्या बा ने उत्तर दिया। 
'तुम लोग इस परदेश में भी इतना काम करते हो और हमारी सम्भाळ राखते हो ये कृष्ण कनैया लाल की जै बोलनेवाली बात है बेटा ! आजकल तो घरड़ा - घर  ,  बुजुर्गों के लिए बनाये आश्रय घर में बुढापा बीताते हैं लोग ! हमने बहुत पुण्य किया है जो तुम्हारे जैसे  इतने अच्छे बच्चे हमे मिले। भगवान तुम्हें सदा सुखी  रखे ! '
 दिव्या बा ने आँसू पोंछते हुए अपनी सूती साडी का गुजराती शैली से पहना हुआ पल्ला आँखों से लगा लिया तो उनके बेटे सुधीर पटेल ने आकर पानी का गिलास दिव्या बा के हाथों में थमाया और बा को गले से लगा लिया। 
फिर सुधीर पटेल ने  कहा 
 'मेरी  बा ने  एक बार  सुनाया था - सुनो , 
' पीपळ पान खरंत ,
  हस्ती कुपळिया , 
  मुझ वीती ,
   तुझ वीतशे , 
  धीरी बापुड़ीया  ! ' 
 केम खरूं कहूँ छूं ने बा ? ' ( क्यों सच कह  रहा हूँ ना माँ ?  )
 फिर मुड़ कर  सुधीर ने अपनी माँ दिव्या बा की ओर देखा। 
फिर सभी को संबोधित करते हुए  दोहे का अर्थ समझाते हुए कहा 
 'पीपल के  पके  हुए पान को  गिरते देख कर ,
  नई  उगी हुईं  कोंपल हंसने लगी ! 
 तो पुराने पत्तों ने कहा 
' हमें मुरझाया हुआ देख तुम नादाँन कच्चे पान, हंसो नहीं ! 
  जो आज मुझ पे बीत रही है , वह कल तुम पे बीतेगी ! 
  आशय ये है कि ,  एक दिन  तुम सब भी बूढ़े हो जाओगे '
 ये बड़ी पुराणी  गुजराती कविता है जिसे बा ने  एक बार मुझे समझाया था। 
               सुचेत , आशी,  सत्येन्द्र , अंजू, लतिका , मिस्टर चेटर्जी , सुधीर और कई सारी आँखें आते हुए भविष्य की पदचाप इस अमरीकी संध्या के डूबते सूरज के मंद पड़ते प्रकाश के साथ देख रहीं थीं और सुन रहीं थीं इस शाश्वत सत्य को !
        इस क्षण, समय के दरिया  से उठती निशब्द लहर के स्वर , अपने आनेवाले भविष्य को,
 अपने गुज़रे हुए कल के साथ जोड़ रही थी। संध्या का समय संधि काल का क्षण है। उसी तरह जैसे युवा अवस्था , मनुष्य  जीवन के शैशव और वृध्धावस्था की वय संधि का पड़ाव है। यौवन का दंभ क्षण मात्र के लिए होता है। 
         वर्तमान में खड़े वे सब  देख रहे थे उस कल को जो सुनिश्चित था की वह अवश्य आयेगा। 
वे समझ रहे थे कि आज वर्तमान में खड़े उन सभी के साथ एक सुद्रढ़ सहारा भी था।  जो उस आनेवाले दिनों के प्रकाश को और अधिक उज्जवल करने में सक्षम था और वह था बड़ों का आशीर्वाद और सत्कर्म की  प्रेरणा !  भारतीय परम्पराओं का पाथेय आज उनके साथ था।  
सप्ताहांत की दावत यादगार रही ! 
इस सुहानी शाम की दावत में,  माँ के प्रेम से सींचा और पुत्र द्वारा  प्रेम से परोसा गया सबसे लजीज व्यंजन  शाश्वत सत्य, साक्षात्कार का पावन क्षण ही वास्तव में शाम की दावत का सर्वथा अप्रतिम और अनूठा उपहार था।  

 - लावण्या

देवी पार्वती

$
0
0
।। ॐ।।  
देवी पार्वती 
या देवी सर्वभूतेषू, मातृ रूपेण सँस्थिता
देवी पार्वती,  हिमनरेश हिमवान तथा मेनावती की पुत्री हैं। वे भगवान शंकर की पत्नी हैं। 
उनके कई नाम पुरानों में वर्णित हैं जैसे उमा, गौरी, अम्बिका, भवानी आदि । 
 हिमवान के घर एक सुन्दर कन्या ' पार्वती ' के जन्म के  समाचार सुनकर देवर्षि नारद हिमालय  के घर आये थे।
 हिमनरेश के पूछने पर देवर्षि नारद ने पार्वती के विषय में  बतलाया कि,
'तुम्हारी कन्या सभी सुलक्षणों से सम्पन्न है तथा इसका विवाह भगवान शंकर से होगा। 
किन्तु महादेव शिव शंकर जी को पति के रूप में प्राप्त करने के लिये  पुत्री पार्वती  को घोर तपस्या करनी पड़ेगी । ' 
देवी पार्वती की  पूर्व जन्म की कथा : 
पार्वती पूर्वजन्म में दक्ष प्रजापति की पुत्री सती थीं।  तथा उस जन्म में भी वे भगवान शंकर की ही पत्नी थीं । 
     एक बार सती ने देखा कि  आकाश मार्ग से  देवी देवता , गंधर्व , अनेक ऋषि  और अप्सराएं  ये सब कहीं जा रहे थे। 
 देवी सती ने पूछा 
'आप सब कहाँ प्रस्थान कर  रहे हैं ? ' 
एक देव पत्नी ने कहा 
 'माँ सती , आपके पिता दक्ष ने आपके घर , महान यज्ञ का आयोजन किया है।  '
यह सुनकर सती की इच्छा हो आयी कि वे भी सम्मिलित हों और सती ने  अपने पति  शंकर भगवान् से पूछ लिया 
'हे नाथ ! क्या मैं अपने पिता के घर जाऊं ? ' 
शंकर जी ने कहा  
'निमंत्रण  न आया हो उस स्थान पे बिना बुलाये पहुंचना उचित नहीं परन्तु जैसा तुम सही समझो वही करो । '
सती चली गईं परन्तु मैके में , माँ बापू के घर , एक उनकी माँ को छोड़,  किसी ने प्यार से सती देवी का स्वागत न किया।  
सती को  मन ही मन इस से बहुत दुःख हुआ और बुरा लगा। 
यज्ञ आरम्भ हुआ तो हरेक देवता का नाम लेकर उनका स्वागत किया गया और यज्ञ भाग अलग रखा गया 
परन्तु शंकर जी का  नाम नहीं लिया गया। 
     अब ,  सती  माता ने अपने परम पवित्र,  पतिदेव का ऐसा अपमान होता हुआ देखा तो सती क्रोधित हो गईं। 
 अपने शरीर से  सती ने , तप ज्वाला प्रकट कर ली और स्वयं को योगाग्नि में भस्म कर दिया । 
उसके कुछ वर्ष पश्चात ,  हिमनरेश हिमवान के घर , सती ही पार्वती बन कर अवतरित हुईं |

पार्वती को भगवान शिव को पति के रूप में प्राप्त करने के लिये वन में तपस्या करने चली गईं। 
अनेक वर्षों तक कठोर उपवास करके घोर तपस्या की।  पार्वती ने तपस्या करते हुए एक पान खा कर
 दिन बिताये.  जब वह एक पर्ण भी खाना छोड़ दिया तब वे 'अपर्णा 'कहलाईं।  
भगवान शंकर ने पार्वती के अपने प्रति अनुराग की परीक्षा लेने के लिये सप्तऋषियों को पार्वती के पास भेजा। 
उन्होंने पार्वती के पास जाकर उसे यह समझाने के अनेक प्रयत्न किये कि,
' शिव जी औघड़, अमंगल वेषधारी और जटाधारी हैं और वे तुम्हारे लिये उपयुक्त वर नहीं हैं। 
उनके साथ विवाह करके तुम्हें सुख की प्राप्ति नहीं होगी। तुम उनका ध्यान छोड़ दो। '
किन्तु पार्वती अपने विचारों में दृढ़ रहीं। उनकी दृढ़ता को देखकर सप्तऋषि अत्यन्त प्रसन्न हुये और उन्हें 
सफल मनोरथ होने का आशीर्वाद देकर शिव जी के पास वापस आ गये। 
सप्तऋषियों से पार्वती के अपने प्रति दृढ़ प्रेम का वृत्तान्त सुन कर भगवान शंकर अत्यन्त प्रसन्न हुये।
सप्तऋषियों ने शिव जी और पार्वती के विवाह का लग्न मुहूर्त आदि निश्चित कर दिया। 
वैरागी भगवान शिव ने उनसे विवाह करना स्वीकार किया।
निश्चित दिन शिव जी बारात ले कर हिमालय के घर आये। वे बैल पर सवार थे। 
उनके एक हाथ में त्रिशूल और एक हाथ में डमरू था। उनकी बारात में समस्त देवताओं के साथ उनके गण भूत, प्रेत, पिशाच आदि भी थे।
 सारे बाराती नाच गा रहे थे। सारे संसार को प्रसन्न करने वाली भगवान शिव की बारात अत्यंत मन मोहक थी।
 इस तरह शुभ घड़ी और शुभ मुहूर्त में शिव जी और पार्वती का विवाह हो गया और पार्वती को साथ ले कर शिव जी अपने धाम कैलाश पर्वत पर सुख पूर्वक रहने लगे। 
शंकर पार्वती एक दूजे के पूरक हैं और उनका संपृक्त स्वरूप 'अर्धनारीश्वर 'कहलाता है।  
 शिव परिवार के अन्य सदस्य हैं - ज्येष्ठ पुत्र कार्तिकेय। कालिदास ने संस्कृत ग्रन्थ 'कुमार संभव 'में 
शिव पार्वती विवाह और कार्तिकेय या षन्मुख के जन्म की कथा लिखी है।  
पार्वती जी ने अपने छोटे पुत्र गणेश का सृजन किया था और श्री गणेश की 
हर पूजा विधि में सबसे पहले पूजा की जाती है। वे माता के लाडले बेटे हैं।  
माता भवानी का सिंह और शंकर भगवान् का नंदी बैल , कार्तिकेय का वाहन  मोर और गणेश जी का चूहा ये  भी परिवार के सदस्य हैं। 

     तुलसी दास जी की लिखा पवित्र ग्रन्थ ' राम चरित मानस 'और वाल्मिकी ऋषि कृत रामायण दोनों में वर्णन है कि ,  माता पार्वती ने राजकुमारी जनक दुलारी  सीता जी को श्री राम पति रूप में अवश्य मिलेंगें ऐसे आशीर्वाद, दिए थे। 
सीता जी माता पार्वती की स्तुति इन शब्दों में की थी 
जय जय गिरिबरराज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी॥ 
जय गजबदन षडानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता॥
भावार्थ:- हे श्रेष्ठ पर्वतों के राजा हिमाचल की पुत्री पार्वती! आपकी जय हो, जय हो,
 हे महादेवजी के मुख रूपी चन्द्रमा की (ओर टकटकी लगाकर देखने वाली) चकोरी! आपकी जय हो, 
हे हाथी के मुख वाले गणेशजी और छह मुख वाले स्वामिकार्तिकजी की माता!
 हे जगज्जननी! हे बिजली की सी कान्तियुक्त शरीर वाली! आपकी जय हो! 
बाबा तुलसी दास जी ने 'पार्वती मंगल 'में शिव जी का पार्वती जी से पाणिग्रहण संस्कार का रोचक वर्णन लिखा है।
 इस का पाठ अत्यंत मंगलकारी है।  
 सुनु सिय सत्य असीस हमारी पूजहूँ  मनकामना तुम्हारी ' 
ये आशीर्वाद माँ पार्वती सीता जी को देते हुए मानस में कहतीं हैं।  
 इसी तरह विदर्भ की राजकुमारी रुक्मिणी को भी पार्वती देवी ने आशीर्वाद दिए थे कि , 
'श्री कृष्ण तुम्हें पति रूप में प्राप्त होंगें। ' 
कुंवारी कन्याओं द्वारा माता पार्वती की पूजा करना और प्रेम और आदर देनेवाला पति मांगना ऐसे  व्रत और पूजन अनुष्ठान भारत में प्राचीन काल से आज तक अखंड रीत से चले आ रहे हैं।   
पार्वती देवी के प्रिय शिव शंकर या भोले नाथ सृष्टि के आदि देव हैं। परम पिता हैं और माता पार्वती जगत जननी समस्त संसार की माता स्वरूप हैं। 
राम चरित मानस का शुभ आरम्भ  शिव पार्वती , दोनों की स्तुति , पूजा से हुआ है।  
'वागर्थाविव समपृक्तो वागर्थ प्रति पतत्ये जगत पितरौ वन्दे पार्वती परमेश्वरो।।  
करवा चौथ के पवित्र मंगलमय तथा सर्वथा निस्वार्थ स्नेह के प्रतीक रूप पूजा व्रत के पावन अवसर पर 
हर पत्नी अपने सात फेरों से पति रूप में पाए अपने साथी के लिए भूखी रह कर, निर्जला व्रत रख ,
 माँ पार्वती से हाथ जोड़कर प्रार्थना करतीं हैं कि ,
 'हे माता आप की जय हो ! आप की कृपा हो ! 
माँ , मेरे पति को लम्बी आयु दें उन्हें सुखी और स्वस्थ रखें और हमारे परिवार में सुख- शान्ति  और संतोष रहे ।  ' 
दुर्गा - पूजा 
सजा आरती सात सुहागिन तेरे दर्शन को आतीं 
माता तेरी पूजा कर के वे  भक्ति निर्मल हैं  पातीं 
दीपक कुम कुम अक्षत लेकर तेरी महिमा गातीं 
माँ दुर्गा तेरे दरसन कर के , वर सुहाग का पातीं 
वे तेरी महिमा शीश नवां करकर गातीं 
हाथ जोड़ कर शिशु नवातीं , धीरे से हैं गातीं ,
'माँ ! मेरा बालक भी तेरा " ~~ 
ऐसा तुझको हैं समझातीं :-) 
फिर फिर वे तेरी महिमा गातीं 
'तेरी रचना भू मंडल है ! '
ऐसे गीत गरबे में हैं गातीं '  
 माता तुझसे कितनी ही सौगातें 
 है , भीख मांग ले जातीं
माँ सजा आरती , सात सुहागिन 
तेरे दर्शन को आतीं 
मंदिर जा कर शीश नवां कर 
 ये तेरी महिमा हैं गातीं !  - लावण्या 

मन मीत

$
0
0
हमारे शहर के बाहर एक स्वच्छ , सुन्दर नदी बहती है। गाँव का पनघट और धोबीघाट जहां है , उसके  बस दो पग आगे , वेणु नदी , पथरीले इलाके से समतल भूमि पर उतरती है। कुंवारी कन्या का रूप ताज कर , नई सुहागिन बनी सकुचाती , शरमाती , अपनी धारा को मंथर करती हुई , दोनों किनारों को हरीतिमा से पूरित करती हुई , गाँव पार करते हुए , आगे कसबे की घनी बस्ती के मध्य , सेतु रचे बहती है। वहीं पर किसी पुरखे ने एक पुलिया बनवायी थी। जिस पर चल कर पास के गाँवों से सौदा खरीदने, बेचने , कई सारे लोग , पुलिया पार कर , कसबे के बाज़ार तक पहुँचते हैं। मैं भी
इस पुलिया से , करीब, रोज ही गुजरा हूँ।
मुझे यह पुलिया बहुत पसंद है। शायद इसी कारण , के मैंने , यहीं पर सबसे पहली बार ,तुम्हें देखा था।अपने जीवन से हताश , मैं वहां रोज ही खडा रहता। नदी की तेज घुमावदार धारा को , अपना वेग संतुलित कर आगे बढ़ता हुआ देखता रहता और पुलिया के नीचे जल गहर बहर करता , गुजरता रहता उसे देख मुझे ये  आभास होता कि, यूं ही  मेरी ज़िन्दगी भी  भागी जा रही है। मेरी ज़िन्दगी ऊपर से शांत दिखलायी देते हुए भी , बेकली और उदासी को छिपाये, गुजर रही थी। किसी संध्या को मैं वहीं ठिठक कर खडा रहता जब तक रात का अन्धकार , हर दिशा को , ओढ़ लेता और वेणु नदी की जलधारा , चिकने काले तरल आकार में , तब्दील हो जाती। जिसे देख मेरे मन को अजीब सा सुकून मिलता। फिर मैं सोचता , 'अब मेरे लिए और रह क्या गया है करने को  ?  
घर के बड़े - बुजुर्ग , दूर के रिश्तेदार की भाभी की लाडली छोटी बहन 'मधुरिमा 'से मेरा लगन तय करने लगे थे और मैं , जिसकी शादी होनी थी उसे किसीने पूछा तक नहीं कि , मेरी क्या मरजी है ? ये क्या बात हुई भला ? क्या मैं अब भी कोइ दूध पिता अबोध बालक हूँ ! वो लडकी भी अजीब है ! क्या उसकी कोयी अपनी इच्छा न होगी ? उसे किसीने न पूछा होगा के , 'बिट्टू , तुझे करनी है शादी ?  ऐसा भी नहीं के वो मुझे पसंद नहीं ! उसकी सूरत बड़ी भोली - सी है प्यार से बड़ी हो गयी पुतलियों में , लहराता विशवास और प्यार मैंने देखा था।  
जब वह मुझे घूर घूर कर देख रही थी और भाभी भी मुख पे पल्ला लिए हँसे जा रही थी। न जाने सब रिश्तेदार क्या सोच रहे थे।
जब हम , एक विवाह के अवसर पर , आमने - सामने , हो गये थे।
मैंने मधुरिमा के चेहरे को , ध्यान से देखा था। मधुरिमा की त्वचा पहाडी लड़कियों की तरह कोमल और साफ़ थी। स्वच्छ , सुफेद ब्लाऊज और गुलाबी साड़ी में उसका चेहरा , गुलाब की तरह खिल रहा था और एक आभा उसके चेहरे पर फ़ैली हुयी थी माथे पर , स्वागत की रोली का तिलक , केसर से बना हुआ था और नन्ही नन्ही आँखों में , उत्साह उमड़ पडा था।
माँ ने मुस्कुराकर भाभी का हाथ थाम लिया और जब मधुरिमा वहां से चल दी तब उसकी आश्वस्त सी चाल देखकर बड़ी बुढीयाँएं कहने लगीं , 'बड़ी सुन्दर बहु मिली है हमारे मोहन को ! क्या जोड़ी रहेगी मोहन की मैया !अब आप तो खुशी खुशी ब्याह की तैयारी करो ! "
आज भी , मैं पुलिया पर आ खडा हुआ हूँ। न जाने अनगिनत विचारों से मेरा मन माथा हुआ है और मैं लोगों की सुव्यवस्थित जिंदगानी का चलचित्र देख रहा हूँ। बस उसी वक्त, सामने से पुलिया के उस पार से , तुम तेजी से चलतीं हुईं आयीं।  
ifresh face girl female beautiful
पुलिया के उस पार से , तुमने मेरी ओर देखा था। मार्ग में आने जाने वाले लोगों के कन्धों के बीच से हमारी नज़रें टकरायीं थीं और तुमने बड़ी सरलता से एक खुला हुआ स्मित मेरी और उछाल दिया था। तुम्हारी उस मनोहरी मुस्कान में कोई परदा न था ना ही था कोई अलगाव! मुझे उस एक पल में यूं लगा मानों तुम मेरी चिर परिचित हो ! आत्मीय हो ! मेरी स्वजन ! जिसे मैं बरसों से पहचानता था , जानता हूँ और सदा जानूंगा। उस एक सहज मुस्कान से यूं प्रतीत हुआ मानों हम और तुम रोजाना मिलते रहें हों। और मैं, आगे कुछ सोच पाऊँ , उससे पहले, तुमने अपना मुख मोड़ लिया था। पर मैं तो एकटक तुम्हीं को ताके जा रहा था। अब तुम बिलकुल मेरे करीब तक आ पहुँचीं थीं। तुम्हारी चाल की गति में कोई बदलाव न आया। तुम उसी तरह चलतीं रहीं।  
तुम्हारे बदन पर छिडके इतर की मादक गंध वह महक , हल्की सी तरल खुशबु , मानो एक क्षण , मुझे अपने आलिंगन में समेटती  हुई आई और दूर हो गयी। मुझे झकझोर गई। तुम मेरी और देखे बिना अपनी ऊंची सेंडिल की खट - खट से रास्ता तय करती हुईं चल दीं ! तुम्हारा गोरा, सुडौल कसा हुआ बदन , नपे तुले डग भरता आगे और आगे बढ़ता गया।
     अब तुम पुलिया के दुसरे सिरे तक पहुँच चुकीं थीं और तुमने एक बार मुड़कर , मेरी और देखा ! मैं, अपनी जगह पर ठगा सा , जडवत , तुम्हीं को निहार रहा था। क्या किसी नितांत अपरिचित से भी कोई , इतना प्रभावित हो सकता है ? तब तुम मेरी और देख कर हलके से मुस्करायीं और मैं वह कर बैठा जो मैंने अपने जीवन में इससे पहले कभी सोचा तक नहीं था !
तब करता तो भला कैसे , ही ? पर मैंने , अपना हाथ उठाकर , तुम्हें रूकने को कहा !
तुम अब खुलकर हंस पडीं थीं और मैं , अज्ञात  वशीकरण  से सम्मोहित - सा , तुम्हारे पीछे चल पडा था। लोगों की भीड़ , हमारे आस पास , ऐसे ही चलती रही। तुम जितना तेजी से चलतीं, मैं भी अपनी गति तेज कर उतनी ही त्वरा से तुम्हारे पीछे चल दिया। रास्ता कट रहा था और मैं सोच रहा था , 'क्या करतीं हैं मैडम ? योगासन या कसरत ? क्या मालूम कराटे चैम्पियन हों ! 'अब मैं हांफने लगा था और सोच रहा था , इतना तेज मैं , कभी नहीं चला '
मेरा मुंह सूख रहा था अपने स्वभाव के विपरीत, मेरा बर्ताव, मेरे होशो हवास उड़ाकर, मुझे एक जादूई क्षण के हवाले कीये जा रहा था मानों मेरा अस्तित्त्व , तुम्हारे साथ जुड़ गया हो !
अचानक , कसबे की और जाती सड़क के ठीक सामने बड़े चौराहे को पार कर एक विशाल भवन के फाटक को खोल कर तुम उस से भीतर दाखिल हो गयीं।  
Kerala home

एक भारी जालीदार फाटक तुमने , रोज की आदतानुसार , आसानी से खोला। बस ज़रा सा ही और अपने आपको भीतर सरका लिया था। पर , फाटक को तुमने खुला ही छोड़ दिया और आगे बढ़ गयीं थीं। पूरे पांच मिनट बाद, मैं भी उसी जालीदार फाटक को ठेलता हुआ भीतर दाखिल हो गया था जहां मैंने फूलों से भरी एक सुन्दर बगिया देखी। सामने जमीन पर मखमल सी हरी घास बिछी थी और उस हरी घास के दरिया के बीचोंबीच , हलके बादामी राग से पुती हुयी एक छोटी सी कुटिया थी। सामने एक बड़ा लकड़ी की नक्क्काशी से सजा प्रवेश द्वार था जिसके सामने , लता मंडप पर एक तरफ सुफेद और दूसरी तरफ लाल गुलाब के पौधे फूलों से भरे स्वागत में खिले हुए झूम रहे थे और उन्हीं के पीछे , रात रानी और जूही की लताएं लहरा रहीं थीं और गले मिल रहीं थीं।
तुम अपनी पर्स से झुक कर चाबी निकालकर सीधी हुईं और दरवाज़ा खोलने लगीं और मैं सुगंध सागर में अनिमेष वहीं खड़ा हुआ एक आनंद के सागर में गोते लगा रहा था कि दरवाज़ा खुल गया और तुम भीतर दाखिल  हो गयीं। 
मैं दरवाजे के पास पहुंचा। मेरे उस द्वार पर हाथ रखते ही वह भीतर की तरफ खुल गया। तुम उसे खुला ही छोड़कर भीतर चलीं गयीं थीं शायद ! मन भी कांप रहा था मेरा और तन भी ! पर उस वक्त होश किसे था ? मैं भी हिम्मत कर भीतर प्रविष्ट हो गया।बाहर की तेज धूप से अभ्यस्त आँखें भीतर के धुंधलके में , कुछ पल के लिए कुछ भी देख न पायीं। कमरे में फ़ैली मध्धम रोशनी में , मैं अपनी आँखों को , अभ्यस्त कर रहा था। जब कमरा साफ़ दीखलाई देने लगा तो मैंने देखा , दो बड़े आरामदेह सोफा सेट को और लम्बी खिडकियों पे महीन , सुफेद लेस से बने लम्बे जमीन तक लहराते परदे हवा से झूल रहे थे। शोख मरूंन रंग की कारपेट के इर्द -गिर्द , ग्रे रंग के सोफे , कमरे को भव्यता के साथ , सुन्दरता भी प्रदान कर रहे थे। दीवारों पर वही सौम्य - ग्रे रंग , हल्के आसमानी या भूरे रंग जैसा , पुता हुआ था। रेकोर्ड प्लेयर पर हल्की हल्की संगीत की धुन बज रही थी।
कोइ घुड़सवार अकेला सीटी बजाता हुआ मानों सुनसान रेगिस्तान पार कर रहा हो और अपनी मस्ती में कोइ धुन सीटी बजाता हुआ बियाबान को रंगीन बनाताहुआ गुजर रहा हो और उस धुन की कशिश मेरे दिल को मोहित कर गई।
ऐसा ही कुछ मुझे उस वक्त लगा था। मैं आँखें फाड़े , आस पास देख रहा था। कभी दीवार पर लगे बड़े से आईने को देखता जिसमे बाहर के पेड़ की छाया दीखलायी दे रही थी तो कभी ऊपर , सुफेद छत पर एक मोटी सुनहरी ज़ंजीर से लटके बेशकीमती झाडफानूस से मेरी नज़रें टकराईं !
fabian-chandelier-5
तुम तभी भीतर के कमरे से बाहर आयीं। तुम्हारे हाथ में चांदी की  ट्रे थी जिस पे चांदी के २ गिलास भी थे।

तुम्हारी , झीनी , पिघली हुई चांदी सी आवाज़ उसी वक्त मैंने पहली बार सुनी !तुमने बड़ी बे तकल्लुफी से से मुझसे कहा ,
'अब भीतर आ ही गये हो तो , बैठ भी जाओ ...' 
क्या अजीब बात कह दी थी तुमने !! एक अजनबी के यूं अपने घर में घुस आने से तुन्हें ना कोई शिकायत थी ना कोइ आश्चर्य हुआ था ! ना कोइ उलाहना - ना हि कोई डर था तुहारे चेहरे पर !! मुझे तो यूं महसूस हुआ मानों तुम ना जाने कितनी देर से मेरी ही बाट जोह रहीं थीं। अब तो घबडाकर धडाम से , मैं सोफे पर बैठ गया ! तुमने मेरे कांपते हाथों मे एक ग्लास थमा दिया तो ठंडी सिहरन मेरे पूरे बदन मे  दौड़ गयी। मैंने चांदी के गिलास से उठते झाग को नासमझी और शंका सहित देखा , हडबडा कर बोला
'मैं बीयर नहीं पीता ! "
तुमने तिपैये वाला पीतल का एक स्टूल उठाकर , उसे मेरे नजदीक लाकर रखा और आराम से उस पर बैठते हुए बड़े इत्मीनान से कहा,
'अरे ...मैं भी नहीं पीती बीयर ..ये तो 'थम्स - अप ' है पी लो , मैं क्यों देने लगी आपको बीयर - शीयर ! "फिर तुम्हारी चांदी और सोने की घंटियां मानों एक साथ बज उठें वैसी मधुर हंसी ,  पार्श्व मे बज रहे सीटी की धुन का साथ देती हुई , कमरे मे  गूँज उठी !
       मैंने अपनी झेंप मिटाने की कोशिश करते हुए गिलास ओंठों से लगा लिया और गट गट कर सारा प्रवाही पेय , एक सांस मे, मैं ,  पी गया। कुछ बूँदें मेरे कांपते हाथों की ओर इशारा करतीं हुईं उछलकर कर मेरे कपड़ों पे गिर पडीं। तुमने उस वक्त, बड़े आराम से एक नेपकीन  बढा दिया था और तब तुम खुलकर मुस्कुराने लगीं। अब तो मेरे पूरे होशो हवास उड़ गये। मैंने अपने सूख रहे ओंठों पे जीभ फेरी और कहा ,
’ ए जी 'देखिये , मैं इस तरह्  कभी किसी अजनबी के घर , आजतक गया नहीं। पता नहीं आज क्या हुआ कि मैं इस तरह आपका पीछा करता हुए , आपके घर तक चला आया '     
    मैंने अपनी सफाई पेश करते हुए ये कहा तब तुम फिर हंस पडीं और मेरी ओर गौर से देखने लगीं। उसी वक्त मैंने भी तुम्हारी ओर नज़रें घुमा कर तुम्हें पूरी नज़र देखा था। खिड़की से , धूप की एक किरण फ़ैल कर ठीक तुम्हारी आँखों को छू रही थी।  
'बाप रे ! ये क्या ! कितने ही रंगों की आँखें मैंने देखीं थीं और न जाने कितनों के बारे मे पढ़ भी रखा था , सुना भी था पर तुम्हारी वह पैनी आँखें , जो तीर की तरह मेरे दिल को चीर कर , आर पार होकर,  मेरे मन के भीतर तक पहुँच रहीं थीं  जहां मेरे मन के सारे रहस्यमय भाव, सुषुप्त निद्रा मे जकड़े हुए सदीयों से कैद थे पर आज उन्हें मैं तुमसे छिपा नहीं पा रहा था। मैं बेबस था तुम्हारी उन मर्मभेदी आँखों के सामने ! वैसी आँखें मैंने आज से पहले कभी न देखीं थीं।
तुम्हारी पुतलियाँ अब फैलकर बड़ी हो गयीं थीं और उनकी घनी छाया नारंगी रंग की पुतलियों तक फ़ैल गईं थीं। क्या किसी की आँखें केसरी रंग की भी हो सकतीं हैं ? कत्थे के रंग सी ? बिलौरी कांच सी ? पारदर्शी तुम्हारें आँखें पर ऐसी ही थीं और तुम्हारीं पैनी नज़रें मुझे ऊपर से नीचे तक जांच रहीं थीं। मैंने , गिलास  रख दिया।
     कुछ देर के बाद अपनी गोद मे रखे अपने हाथों की ओर देखा तो वे अपने मे ही उलझ कर बन्ध रहे थे , खुल रहे थे ! तुम्हें पता था कि मैं कितने पेशोपश मे उलझा हुआ हूँ।
        मैंने फिर चेष्टा से ऊपर देखा। तुम अब भी अनिमेष नयनों से मुझे निहार रहीं थीं। अच्छा हुआ तुम उस दिन कुछ बोलीं नहीं थीं। बस मेरे पास बैठी हुईं मुझीको निहार रहीं थीं और आज एक राज़  की बात बतलाते हुए मैं बिलकुल नहीं डरता कि , उस जादुभारे पल मे , अगर तुम मुझसे पूछतीं कि, “ क्या तुम मुझसे विवाह करोगे ? "
तब अपनी उस बदहवासी में , मैं यही सुनता कि तुम कह रही हो,
"चलो प्रिये हम इसी क्षण , विवाह कर लेते हैं “ या इसी आशय का कुछ  ! ऐसा ही अनायास - सा तो मेरा उत्तर भी यही सुनतीं
“ हम एक दूजे के हो जायेंगें...सदा सदा के लिए , मैं , तुम्हारा हूँ ..”  
मैं , “ हां  “ कह देता। पर तुम खामोश थीं।
     मेरे मन मे उठते गिरते भावों के बादलों को मनोकाश मे घिरते , छंटते , तुम देखतीं रहीं। मेरे चेहरे पर भावों के इन्द्रधनुष को खिला देखकर भी तुम मौन रहीं थीं। ना जाने ऐसे ही कितना समय बीत गया। ना जाने कितनी  बरखा , झरने , नदियाँ , जल से भरीं हुईं , सागर मे समा गयीं।      
    दीवार पर टंगी घड़ी ने जब डंका बजाया तभी हम दोनों की मौन समाधि टूटी ! तुम गहरी तंद्रा से जागते हुए बोलीं ,
“ ओह , घड़ी ! "तुम उस वक्त वहां से न उठतीं तो शायद मैं भी न उठ पाता !
अपने को सम्हालकर , खडा करते हुए मैंने कहा
'चलता हूँ …’और मैं दरवाज़े की ओर लपका तुमने फिर आवाज़ दी 'इसे तो लेते जाओ ...'मैं भौंचक्का सा देखने लगा , मेरा बेग , तुम्हारे हाथों मे था ..‘ अरे इसे लाया भी था क्या मैं ? ‘
मैं सबकुछ भूल गया था। तुमने मुझे बेग लौटाया तो तुम्हारी नाज़ुक ऊंगलियों  की  वो हल्की सी छुअन ने मुझे कंपकपी से झकझोर दिया। बस इतना ही पूछ पाया था , 'नाम तो बतला दो ! '
'मालती 'तुमने धीमे से कहा।
     मैं बेग छीनकर दरवाजे से बाहर निकल आया। अथाह जलराशि जो मुझे डुबो रही थी उस के बीच उठती भंवर मे, वही एक तख़्त था जो मेरे प्राण बचा कर मुझे किसी सुरक्षित थल तक ले पहुंचता। बाहर बगिया मे , फूल, मुस्कुरा रहे थे जिनकी खुशबु और तेज हो गयी थी।
   मैं दौड़ता पड़ता हुआ बस आगे बढ़ता गया। एक बार भी मैंने पीछे मुड़कर देखा नहीं। उस वक्त , मैं , इतना जान गया था कि, आज के बाद मधुरिमा से ब्याह की बातें और उनमे दीलचस्पी लेना , ये मेरे जीवन का सब से बड़ा झूठ होगा और अपने आप से किया सबसे बड़ा फरेब ! मेरा चैन मेरा आराम उसी दिन से हमेशा के लिए दूर हो गया था। वही था अपना प्रथम मिलन !
शायद प्रकृति या नियति को यही मंजूर था कि हम दो अजनबी , उस मिलन के पश्चात , एक अटूट प्रणय पाश मे बन्ध कर एक हो जाएँ कभी सांझ कभी सवेरे, रोज मिलना , बिछुड़ना। यही क्रम हो गया था जिसमे हम बन्ध गये थे।  
     एक शाम डूबते सूरज को देख तुम गीत गुनगुनाने लगीं थीं तो उस पहाडी गीत का अर्थ पूछ ही लिया था मैंने और तुमने कहा था , ‘ ये एक शिकारी और हिरना हिरनी की कथा है ! एक था हिरण और एक थी हिरणी ! उस प्यारे जोड़े में से ,एक दिन उस क्रूर शिकारी ने हिरणी को अपने विष बुझे नुकीले तीर से घायल कर , उस के प्राण ले लिए ! फिर उस बेरहम शिकारी ने हिरणी के चमड़े  से एक ढोलक बनायी जिसे वह तन्मयता से थाप दे दे कर बजाता उसकी प्रेयसी , ऊंची पहाडीयों पर उसे सुनती और मग्न होकर खूब नाचा करती थी। एक दिन बेखयाली मे नाचते हुए वो पहाडी ढलान से फिसलकर, नीचे खाई मे गिर पडी और वो शिकारी की प्रिया, मर गई। अब तो वह शिकारी दुखी हो गया। अपनी प्रिया के बिछोह में पागल होकर , मारी हुई मृगी की खाल से बनी ढोलक पर थाप देता और अपनी प्रेयसी की धू धू कर जलती चिता को याद कर आंसू बहाता रहता ! जब जब ये करता , तब उस हिरनी का प्रेमी हिरना भी वहाँ खिंचा चला आता और डरे बिना शिकारी के सामने आ कर खडा हो जाता। डूबते हुए सूर्यदेव की साक्षी मे हिरना अपनी व्यथा, दुःख से बेहाल हुए शिकारी के संग बांटता। अजीब सा समा उस पहाड़ी ढलान पर दिखलाई पड़ता ! वादी के लोग कहते हैं कि कुछ पल को पहाड़ों के झरने भी थम जाया करते थे ! जानते हो ,प्यार क्या है ? वः प्रश्न पूछतीं और उत्तर भी स्वयं देतीं 'उमर भर का दर्द है ये कम्बख्त ! कई कई प्रेमियों की जन्मों जन्म की की पीड़ा बसी है सच्चे प्यार मे !'
    इतना कहकर तुमने मुंह फेर लिया था और मैं तुम्हें आगोश मे भर कर अपने आंसू को बहते हुए देखता रहा जो तुम्हारी कांच सी आँखों मे प्रतिबिंबित हो कर हमारे गालों को भिगो रहीं थीं। 
मैंने कहा था ,
'मालती , पहाड़ की बेटियाँ जादूगरनी होतीं हैं ! तुम भी अवश्य काला जादू जानती हो ! 'तुम एक फीकी हंसी बिखेर कर बोलीं ,
"ये  कैसा जादू है मोहना ? जो जादू करे उसीको पीड़ा से बींध दे ! "इस बात का मेरे पास कोइ उत्तर न था। मैं तुम्हारे और करीब आकर गले में बाँहें डाले पूछ बैठा ,
“ क्या हमीं ने दुबारा जन्म लिया है ? इन पर्बतों की कंदराओं मे अपना खोया प्यार फिर एक बार महसूस करने के लिए ? प्रकृति मैया ने हमे इस जनम मे मानुष भेस दिया है न मालती ? “
तुमने एक चुटकी काटते हुए मुझ से कहा
" ये आज का सच है ! अब भुगतो ! "और हम , उस पहाडी ढलान पर बैठे, वेणु नदी की धारा को , मुड़कर बहते हुआ, कसबे को ग्राम प्रांत से जोड़े हुए सदा की भांति बहता हुआ तब तक देखते रहे थे जब तक संध्या की लालिमा पहले शुक्र तारक से गहरे नीले होते आकाश को अपनी आभा से जगमग करने लगी थी और रात्रि की पदचाप सुनायी देने लगे थी तब तुमने कहा था
'चलो अब , घर जाओ ...शाम ढलने लगी है ...'
'मालती , कल मिलोगी न ? 'मैंने पूछा तो तुमने सर हिला दिया था और हम दोनों अपने अपने नीड़ की ओर अलग अलग दिशा मे चल दिए थे।
मालती :
मालती एक राजसी  परिवार की कन्या थी। माँ , राजरानी साहिबा इन्द्राणी देवी का बचपन मे देहांत हो चुका था और विलासी पिता महाराज रुद्रसिंह जी उनकी दूसरी पत्नी जो एक गोरी महिला थी उस  के संग अधिकतर फ्रांस के बोर्डो , आल्साक , रोह्हन जैसे वाइन उत्पादक इलाकों मे  या जर्मनी के 'ब्लैक फोरेस्ट 'इलाके मे , अपनी शानदार कोठी मे रहा करते थे। यह मालती ने ही मुझसे बतलाया था। महाराज साहब कई महीनों , भारत के अपने इस पहाडी इलाके के राजसी ठाठ बाठ को छोड़ ,  यूरोप मे , समय बिताया करते थे। अपार धन दौलत संपत्ति , पैसा  -- पुरखों से मिली जायदाद जागीर उनके भोग विलास की भेंट चढ़ रहे थी।
जेवरों से भरी तिजोरी , उनके , बीते हुए वैभव की साक्षी थीं।
राजकुमारी मालती देवी ने बतलाया कि अब पुरखों की हवेली मे वह साधिकार रहने लगीं थीं। गेस्ट - हाउस या आउट हाऊस ही मालती को सर्वाधिक प्रिय था। जहां वह अपना अधिकाँश समय व्यतित किया करती थी जहां हमारी प्रथम मुलाक़ात हुई थी।
मालती की पुरानी दाई माँ के निधन के बाद मालती कहती कि अपना सारा काम स्वयं करना उसे पसंद था। अक्सर वह मुझे पैदल चलती हुई पहाड़ी ढ़लानोंपर सैर करती हुई दीख जाया करती थी। लोगों की भीड़ के साथ चलती तो कोइ ये न जान पाता कि राजकुमारी साहिबा , आम लोगों मे शामिल हैं। पर उसे एकांत आधुक पसंद था। यह सारा मालती ने ही मुझे बतलाया था
'महात्मा गांधी के सत्याग्रह से वह प्रभावित थी। अंग्रेजों के कुशाशन से देश को आज़ादी मिली उसकी उसे खुशी थी। भारत अपनी पहचान बनाकर दुनिया के अन्य देशों के साथ अपना अस्तित्व बना ,आगे बढ़ रहा था उस पे मालतीको गर्व था। पर यह भी बतलाया था कि उसके पिता जी नाराज थे ! भारत सरकार ने राजवंश के साथ हुए प्रीवी पर्स करार को मानने से अपने वादों को भूला दिया था। उस बात का उन्हें क्षोभ था।राजपरिवार , किसी न किसी तरह अपनी अपनी संपदा को पुराने आभूषणों को बेचबाच कर या अपने राज प्रासादों को होटलों मे तब्दील कर गुजारा कर रहे थे।
उस पर हमारी बातें हुईं।
'अब ये आम जनता के जहान मे क्यों आने लगा भला ? 'मैं कहता और मालती मुस्कुराकर रह जाती।  
'महाराज रूद्रसिंह जी को योरोप ज्यादा सुहाता है और वे लम्बी लम्बी टूर पे निकल पड़ते हैं। योरोप के रमणीय जंगल ,उन्हें अपने पहाडी राज्य की याद दिलाते हैं। वे , वाइन के बेहद शौक़ीन हैं और महाराज सा'और वह परदेसन रोजाना शाम से ही रात होने तक सुफेद वाइन की पूरी शीशी पी ही लेते हैं। 'बड़ी शरारत भरे स्वर में तुमने भेद खोलते हुए बतलाया था ! फिर नकल करते हुए कहा “  डार्लिंग , योर व्हाईट वाइन अवैट्स यू .. “
[ प्रिये तुम्हारी सुफेद शराब , तुम्हारा इंतज़ार कर रही है ]  
इसी  वाक्य से उनकीं शामे शुरू होतीं हैं मोहन ! वेटर सारा सरंजाम लेकर  बालकनी मे  उपस्थित हो जाता ! जानते हो उस परदेसन
रानी का नाम स्टेला है ! '
स्कोट्लैंड के स्कोत्च व्हीस्की उत्पादक की कन्या है स्टेला ! उसने अपने जीवन के १७ वे वर्ष मे प्रवेश किया ही था कि एक शाम बड़ी बड़ी मूंछों वाले प्रभावशाली परसनालिटी वाले विधुर , महाराज रूद्रसिंह जी को स्टेला ने पहली बार अपने पिता के व्हिस्की उत्पादन के कारखाने के साथ लगे , शो रूम नुमा , बड़े होल मे देखा था। वहाँ टूर मे आये २० सैलानियों के मध्य , शान से खड़े हुए महाराज रूद्रसिंह को स्ला ने देखा तो कुमारी स्टेला के गोरे गोरे मुख पर विस्मय फ़ैल गया। अन्य यूरोपीय मुखड़ों के बीच में यह लाल पके धेऊँ के धान से रंगवाले , भरे पूरे,  ऊंची कद काठी के , मध्य वय के सुदर्शन भारतीय पुरुष को देख किशोरी  स्टेला की आँखें , झपक कर खुलीं की खुलीं रह गयीं थीं और वह एकटक उनकी ओर देखती रह गई !
उस पुरुष की आँखें,  स्टेला की गुलाबी त्वचा पर और कन्या की आसमानी नीली आँखों मे तैर  रहीं आश्चर्य और आकर्षण से , बड़ी बड़ी हुईं  पुतलियों को देख कर अपने पौरुषत्व को उभारतीं हुईं अल्हड अदा से , मुस्कुरा उठीं ! किसी भी उम्र के स्त्री या पुरुष क्यों न हों , लैंगिक आकर्षण के चुम्बक को हर नर और मादा पहचान लेते हैं। 
महाराज रुद्रसिंह ने स्टेला के मनोभावों को बखूबी पहचान लिया फिर भी सरसरी निगाह से , १६ , १७ वर्षीय कन्या को देखा,  अनदेखा कर रूद्रसिंह जी , बात करते हुए मुड गये और व्हीस्की के बारे मे  काफी जानकारी से भरे वार्तालाप करते हुए  टूर गाईड की बातें सुनने लगे।
कुमारी  स्टेला ने ही आकर , आहिस्ता से उनकी बांहों को छूआ था तब वे मुड़े और बड़े औपचारिक तरीके से शुध्ध अंग्रेज़ी मे कहा 'मेडामोसेल, ' [ याने ‘ आदरणीया महिला  ‘ ]
स्टेला ने अपना हाथ पाश्चात्य की अभिवादन मुद्रा में बढा दिया तो महाराज ने झुक कर हल्का सा चुम्बन उसकी हथेली को उलटा करते हुए अपने ओठों कास्पर्श किया चूंकि यही योरोपियन प्रथा होती है अभिवादन की !
स्टेला आश्वस्त हुई इस पर और सोचने लगी,'आ हा परदेसी सज्जन को , योरोपियन तौर तरीकों से,  पूर्व परिचय है ....
खिले हुए पुष्प सी स्टेला ने मीठे सवर में प्रत्युत्तर दिया
“  एन्चेंटेड  “  [ खुशी हुई ]
अपनी मीठी युवा आवाज़ मे उत्तर देते हुए अपनी हथेली अपने सुर्ख हो रहे गालों पर घुमाते हुए उस अनजान परदेसी के स्पर्श को , मानों , स्टेला ने आत्मसात कर लिया।
उनकी बड़ी बड़ी , काली काली मूंछों  के स्पर्श  से , उसकी हथेली सिहर उठी थी।
स्टेला के केशोर्य को आज एक पुरुष के आकर्षण ने सोते हुए से मानों एक  लम्बे स्वप्न से , जगा दिया था। परियों के देस मे सो रही स्टेला को एक राजकुमार ने आकर उसकी हथेली को चूम कर मानों नींद से जगा दिया था। यही था कुमारी  स्टेला का प्रथम क्रश ! [ माने अदम्य  आकर्षण ] जिससे वे कभी उभर न पायीं ! उसने अपने पिता के पास जाकर आग्रह किया कि,
'डीयर  फाधर ,  इस परदेसी को , वे,  अपने विशाल , आरामदेह आवास पर निमंत्रण दें और उन्हें  रात्रि भोज के लिए , बुलाएं ..'
स्टेला के पिता श्रीमान  केम्रोन मेक ग्रोगर ने अपने पिता  श्रीमान लीओन मेक ग्रोगर सीनीयर से , व्हीस्की उत्पादन का व्यवसाय , वंश परंपरा मे हासिल किया था और पत्नी ईडीठ से विवाह करने के कई वर्ष बाद , ३ बेटों के जन्म बाद स्टेला के पिता होने का सुख प्राप्त किया था। परिवार में सब से छोटी स्टेला , उनके सुखी व संपन्न परिवार मे सभी की लाडली थी। उसका आग्रह भला , कैसे टाला  जाता  ?
      श्रीमान  केम्रोन मेक ग्रोगर ने , महाराज रूद्र सिंह जी को बड़े आदर से निमंत्रण दिया।
महाराज रूद्र सिंह ने , सहर्ष स्वीकार करते हुए शाम को आने का वादा किया और अपने होटल कक्ष मे , वे स्नान व आराम के लिए चल दीये।
        उस शाम  आतिथेय , श्रीमान केम्रोन मेक ग्रोगर के विशाल आरामदेह भोजन कक्ष मे , उनके व्हीस्की के  व्यापार का सर्वश्रेष्ठ नमूना , ्लेंफिद्दीचव्हीस्की को शान से खोला गया और क्रिस्टल ग्लास मे उंडेल कर रूद्रसिंह जी के सामने सादर पेश किया गया।  श्रीमान  मेक्ग्रोगर का  परिवार ,  महाराज  रूद्रसिंह जी के आगमन से अभिभूत था उसका कारण था महाराज का आगमन तथा उनके  पीछे ,  पीछे , ताजे  फूलों का विशाल गुलदस्ता लिए आता हुआ कर्मचारी !! फूलों के गुलदस्ते की भव्यता को  देख , परिवार प्रभावित हो गया था !  निमंत्रण के १ घंटे के भीतर , रूद्रसिंह जी के आदेश से  होटल के फ्रंट डेस्क के कर्मचारियों ने  यह सुन्दर गुलदस्ता फोन पर ऑर्डर कर दिया था उसे प्रस्तुत कदिया था।
'इतनी नन्ही कन्या से उन्हें क्या प्रयोजन हो सकता है ! 'यही सोचते रहे महाराज !
भोजन करते हुए , बातों का सिलसिला चला तो महाराज ने यूं ही बतला दिया के
'अब भारत आज़ाद है पर उनके पुरखे , राजपरिवार का शासन ,
उत्तर भारत के पहाडी इलाके मे स्थित , एक छोटे  प्रांत मे , दो सदीयों से कायम था। '
        इस बातको सुनते ही , व्यवसायी मेक ग्रोगर परिवार मे , रूद्रसिंह जी के प्रति आकर्षण और अधिक प्रबल हो उठा।  
श्रीमती  ईडीठ मेक ग्रोगर भी महाराज की हम उमर थीं। वे अपने पति केम्रोन से १७ वर्ष छोटीं थीं। शायद रूद्रसिंह उनकी लाडली , सबसे छोटी संतान स्टेला से १७ या २० वर्ष बड़े हों ? पर ऐसे  नाज़ुक सवाल इस वक्त पूछने का समय नहीं था। इस वक्त वे लोग लज़ीज़ भोजन को पूर्ण न्याय देने मे मग्न थे। महाराज ने अपने होस्ट माने आतिथेय की , भूरि - भूरि प्रशंसा की और भोजन को भी समुचित न्याय दिया पर स्टेला के सामने उन्होंने बस कुछ पल के लिए ही देखा था।
'बच्ची है ये तो ‘ ...यही सोचते रहे ...'महाराज श्री रूद्रसिंह जी ने उनकी महारानी इंद्राणी देवी के निधन के पश्चात , अपने मनोरंजन और मन बहलाव के कई तरीके खोज लिए थे। पर विवाह करना , उनके वर्तमान संयोजन मे कहीं भी शामिल नहीं था। पर कहते हैं न ,  विधि के रचे खेल ,खेलते  फिरत मनुज यहां तहां 'अतः कहीं न कहीं विधाता का लिखा , सत्य मे परिणीत होकर ही रहता है उस उक्ति को सत्य करते हुए ,  विधुर महाराज रुद्रसिंह जी का विवाह  आगामी ३ महीने मे , उनसे , २२ वर्ष छोटी , स्कोट्लैंड की  कुमारी स्टेला मेक ग्रोगर से बाकायदा पारिवारिक सम्मति के साथ बड़ी  शान शौकत से ,संपन्न हुआ।
स्कोट्लैंड के सभी प्रमुख अखबारों के मुख्य पृष्ठ पर , वेडींग एनाऊंस किया गया और शहर के अति प्राचीन गिरजाघर मे  स्टेला , श्वेत परी से परिधान मे सजी हुई , इस बली पुरुष की ब्याहता धर्मपत्नी बनीं तो  उस विवाह मे इस जोड़े को देखने पूरा शहर उमड़ पडा था। इतना रौबीला दुल्हा  !! राजसी , परम्परागत वस्त्रों मे सुसज्ज , सतलड़े मोतियों के हार से दीप्त , गहरी स्याही के रंग की बंद गले की नेहरु कोलर वाली अचकन और रेशमी सुफेद तंग शेरवानी मे सजे रूद्रसिंह को देख कर लोग , भारतीय राजे महाराजो के वैभव से , प्रभावित हुए बिना न रह पाए।

विवाह मे , महाराज के परिवार का कोई भी व्यक्ति शामिल न था उस बात पर किसीने कोइ ख़ास तवज्जो न दी थी।

कुमारी  स्टेला  महारानी रूद्रसिंह बनीं  सपनों मे , देखी परिकथा को सच होता हुआ अनुभव कर , खुशी के महासागर मे , गोते लगा रही थी !  बस वहीं से हनीमून के लिए केम्रोन और एडीथ ने , नये बेशकीमती सुन्दर गाऊन से भरे २ बड़े संदूक अपनी पुत्री के लिए दहेज़ की प्रथानुसार खूब सारा सामान भर कर विदा किया।
क्वीन एलिजाबेथ विशाल जहाज मे , नव दंपत्ति , ३ मॉस के लिए , रवाना हुए। विश्व के अनेक बंदरगाहों पे, यह लक्झरी लाईनर जहाज , रुकता और रोज विलास से पूर्ण खाना पीना होता। बोल रूम  मे धीमी मंथर गति से किया जाता नृत्य , बोल रूम डांस , जिसमे रूद्रसिंह की बलशाली भुजाओं मे स्टेला के  युवा अरमानों की आग , पिघल पिघल जाती ! दैहिक ताप और शरीर की भूख , संस्पर्श से और प्रज्वलित होकर उद्दाम हो उठती। वे रात्रि के अन्धकार मे , भोज से निवृत होकर , डेक पर टहलते। बांहों मे बाँहें डालकर ,टहलते , इस नये जोड़े के लिए , वह चांदनी में भीगा सुहाना समा, चंद्रमा की शीतल चांदनी का साथ पाकर और सागर से उठती मदभरी मधुर  झकोर के डावांडोल होते हिचकोलों के संग,आल्हाद की नई ऊंचाईयां छूता ! यह जीवन के पागल उन्मादक क्षण थे ! दोनों , नये प्रेमी जो थे  !!
पुरुष अपनी शारीरिक सीमा के उच्चतम सोपान पर था तो कन्या युवावस्था की पागल क्रीडाओं से परिचित हो रही थी और उपभोग से रोमांचित हो आल्हाद समेटे , लालायित हुए , असीम सुख भोग रही थी।
"आई लव यू सो मच ..यू मेक मी डीलीरयस ..वीद पेशन ...यू डेविल यू …हाउ  वेल , यू नो व्हाट आई वोंट ?[ मैं तुम्हे बहुत प्यार करती हूँ ...तुम मुझे मदहोश कर देते हो ..(भावावेश में )…तुम बड़े दुष्ट हो ! ..तुम्हें  भलीभांति पता है मुझे क्या चाहीये , बताओ कैसे जानते हो ये राज़ ? ]
“  रूडी माई प्रेशीयस , माई किंग , आई एम् यौर्स फोरेवर ...मेक मी हैप्पी "[ 'रूडी , मेरे सरताज , मेरे बहुमूल्य जवाहर , मैं तुम्हारी हूँ सदा के लिए , मुझे खुशियाँ दो ' ]

वह कहती और आवेश से उठे सैलाब के आगे सारे बाँध टूट कर ढह जाते।
महाराज रुद्रसिंह , भारत  स्टेला को लेकर लौटे थे।
परन्तु स्टेला का भारत में उस महल में मन न लगा ! भारतीय परिवेश और जीवन उसे अरुचिकर लगा। हां, जब् महाराज , जंगल शिकार के लिए चलते और तब वह भी बियाबान बीहड़ मे , उनके संग सहर्ष चली जाती। वहां के डाक बंगले मे , रंगरेलियों का स्वतन्त्र समा बन्ध जाता। तब स्टेला फिर चहकने लगती। उसे , राज प्रसाद मे , सेवकों और आने जानेवालों की भीड़ से नफरत थी और वह मचल कर महाराज रूद्र सिंह जी से आग्रह करती के वे लोग शीघ्र स्कॉट्लैंड लौटें !
स्टेला का परिवार व्हीस्की व्यवसाय से दिन दूना  रात चौगुना,  धन कमा रहा था।  भाईयों के विवाह हो गये थे। एक भाई , अमरीका भी आता जाता रहता। जहां उनकी उत्पाद की व्हिस्की की खपत करोड़ों डॉलरों मे होने लगी थी। महाराज रुद्रसिंह के लिए , योरोप भ्रमण सहज और स्वाभाविक था। वे भी  भारतीय उमस और गर्मी के मौसम से दूर , स्कॉट्लैंड या इंग्लॅण्ड मे साल का अधिक हिस्सा बिताना ज्यादा पसंद करते थे। शायद  यही कारण था जो मालती का एक छत्र साम्राज्य पुरखों की हवेली पर स्थापित हो चुका था और उसके संयमित परंतु कठोर अनुशासन में बंधी हर क्रिया उस आवास के भीतर घटित होती होगी ! 'यही सोचता रहता था मैं !  
शायद यही  कारण था के हम , मैं मोहन और मालती बेखटके , एक दूजे के संग समय बिता पाते थे। लोगों की नज़रें बचाकर एकांत पाना ये हमारे लिए मुश्किल न था। आउट हाउस मे , किसी  को आने जाने का हक्क न था। ये आदेश भी शायद मालती के हुक्म से दिया गया था जिसे कोइ अनसुना करने का दुस्साहस नहीं कर रहा था। हम मिलते , कभी हम उदास होते तो कभी बेइन्तहा खुश ! हम अपनी मस्ती मे नये नये खेल इजाद करते।
एक यह भी हमारा प्रिय खेल था। जिसमे मालती  मेरी ब्याहता पत्नी होतीं। हमारा मुन्ना मेले मे खो गया होता। मैं डांटता फटकारता
मालती भी झपटकर मुझे धिक्कारती। उलाहना देतीं हुईं कहतीं
'तुम्हीं ने ध्यान नहीं दिया ! मेरा मुन्ना कैसे खो गया तुमसे ?
बताओ अरे , मैं मंदिर मे माँ के दर्शन करने गयी और तुमसे मुन्ना इत्ती देर भी न सम्हला ? " 
               हम कभी ये खेल , गाँव के भोले लोगों के सामने भी खेला करते। तुम गाँव  की भोली बाला का भेस धर मेरे संग चलतीं तब तुम्हारी पायल की छन्न छन्न छन्न से माहौल गूँज उठता।
किसी खेत की मुंडेर  के पास,  हम जब आपस मे इस तरह उलझते और चलकर कुंए के पास पहुंचते , कुछ लोग हमारे इस झगडे मे दिलचस्पी लेना शुरू करते और सुझाव देते ,
कि ,’  मुन्ने को कहाँ खोजा जाए ‘ हम , मुन्ने को ढूँढने का स्वांग भरते …जैसे ही वे ग्रामीण बुजुर्ग , मुड़कर चल देते , तुम चुनरी मे मुंह दबाये हँसते हँसते बेहाल हो जातीं ! तब हमारी हंसी , आंसू के सैलाब मे जाकर रुकती।
हाँ हम दोनों का प्यार इतना गहरा था। इतना समर्पीत था क्यूंकि हम जानते थे के शायद हम कभी एक दूजे के न हो पायेंगें। इतना अपनापन , ऐसा समर्पण ,विधाता भी मंजूर नहीं  करता।
हम दोनों मानों एक ही गोलाई के दो हिस्से थे। आदि काल के नर और मादा। हम दोनों जो अजनबी थे - सब से सभ्य अजनबी ! एक दुसरे की तकलीफों और आराम से पूरी तरह अवगत।
मुझे याद है वो बरखा की मूसलाधार बरसती रात की …
उस दिन सुबह से , लगातार बारीश हो रही थी ..
पहाड़ों पे बिजली , कडाके के साथ कौंध कौंध जाती थी और बड़े बड़े चीड के पेड़  साफ़ दीखलायी पड़ते थे …मैंने उस दिन तुमसे मिलने की आशा , छोड़ दी थी …
इतनी घनी वर्षा मे कोइ बाहर निकलता है क्या ?
यही सोचता हुआ , मैं, बारामदे मे, भीगता हुआ , बाहर खडा था और याद कर रहा था तुम्हें  कि अभिसारिका - सी , तुम, वर्षा के तूफ़ान को चीरती हुई , सामने आ खडी हुईं।
तुम पूरी भीग चुकीं थीं।
बिना छाता लिए , पैदल , माटी से पैर उलझाती हुईं , तुम आ पहुँचीं थीं। तुम बरखा में आगे आगे चल रहीं थीं और मैं बरखा की बूंदों को तुम्हारे कपोल पर , गालों पर और बदन पर झरते हुए देख रहा था।मैं तुमसे मिलने दौड़ पडा।
तुम्हारे समीप आकर, तुम्हारी हथेलियों को अपने हाथों मे कस कर थाम लिया मैंने और हमारे आलिंगन ने बरखा को एक कर दिया
तुम्हारे गीले माथे और आँखों को न जाने कितनी बार मैंने चूमा और बडबडाता रहा , 'तुम आ गयीं ....तुम आ गयीं ...मैं जानता था , तुम जरूर आओगी ... '
मैं तुम्हे खींचकर अपने से सटाकर  वादी की ओर बढ़ गया था।
वह  बरखा की रात,  मेरे और तुम्हारे संग मिलकर , अविस्मरणीय हो गयी थी।
   उसी दौरान , तुम मेरे घर भी आने - जाने लगीं थीं। माँ को तुम बहुत अच्छी लगीं थीं। मैं ने तुम्हारे परिवार के बारे में माँ से कोई जिक्र न किया था सिर्फ , ‘ मेरी सहपाठिन है इतना ही बतलाया था ‘
माँ, बड़ी चालाकी से यह जानने की कोशिश करतीं कि , हमारी घनिष्टता कहाँ तक पहुँची है ? हम एक दुसरे के कितने करीब हैं  ये कोयी जान न पाता क्योंकि तुम सब के सामने बड़ी सभ्यता से पेश आतीं। किसी को अंदेशा न हो पाता के हम जब अकेले होते हैं तब तुम कैसी बचकानी हरकतें करती हो और मैं , पागल हो चुका था पर तुम्हारे संयम के आगे चुप रहना सीख चुका था।
माँ तुम्हारे शालीन औए सुसभ्य व्यवहार से अति प्रसन्न थीं।
ना चाहते हुए भी उन्हें कहना पडा था ,
'अरे ये तेरी  सहपाठीन मालती है बड़ी अच्छी मोहन बेटा ..
इसे तेरे और मधुरिमा के ब्याह मे बुलाना न भूलना ..समझा ? '
 मैं माँ से कैसे कहता कि ,
‘ माँ जिस मन के साम्राज्य पर तुम्हारा एकछत्र  अधिकार था , वहां अब इस सहपाठीन का साम्राज्य फ़ैल चला है ...'
माँ से मुझे अतिशय लगाव था पर मालती अब मेरे नस नस में दौड़ते  रुधिर का प्रवाह बन मुझ मे समा चली थी। एक दिन माँ के पास बैठे मालती भी चावल के धान बीन रही थी। उसने कभी ये काम किये न थे। पर उसे हमारे सीधे सादे घर पर आकर यह सब करना सुहाता था। वह खुश थी। 
एक दुसरे दिन माँ के हाथों का साग और जीरे के छौंकवाली अरहर की दाल और रोटी खाकर मैं , बाहर आकर बैठा ही था मालती आ गई थी। माँ ने प्रश्न किया
' मालती , बिटिया , तेरी माँ न रही ..तुने बतलाया था मुझे बड़ा दुःख होवे है …और तू कहे तेरे बापू भी काम से परदेस रहते हैं  !

तो लाडो , तू अकेली कैसे सारी जिम्मेदारी सम्हाले है री ?

कोयी मदद न करे है तेरे रिश्तेदार तो होंगें ? ' 
‘ हां माजी , हैं न कयी लोग हैं ...आप मेरी फिकर न करें ...'मालती ने माँ को ढाढस बंधाते हुए कहा उर मेरी ओर देखकर मुस्कुराई ....माँ ने ये देखा तो आगे बोलीं ,
‘ मेरा मोहना बड़े नसीब लेकर पैदा हुआ है ..
तू इसके जनम की कथा सुनेगी बिटिया ? "
अब मालती , माँ के नज़दीक सरक आयी और कहा
'हां माँ कहीये न ...'
ग्रामीण वेशभूषा पहन कर आयी मालती ने सर पे लगाया टीका सीधा कर माँ के सामने देखा , वह माँ के चेहरे को कौतूहलवश देख रही थी।
मैं, माँ की गोद मे सर रखे लेता हुआ सब सुन रहा था।
मेरी सारी दुनिया उस वक्त सिमट कर उस दालान मे 'समा गयी थी। माँ , मालती और मैं … बस तीन प्राणी थे वहां ... सच्चे प्यार मे बंधे हुए , हम तीनो थे।        
माँ ने ये अनकही , अनसुनी कथा सुनाना आरम्भ किया।
'मोहन के जनम के वक्त, मैं पीड़ा से कराह रही थी। उस रात जोरों से वर्षा हो रही थी ..मानो आकाश फट पडा हो ..ऐसे पानी थमने का नाम न ले रहा था …आषाढ़ का माह , अमावस्या की  धुप्प अंधेरी रात !बेटी , हाथ को हाथ न सूझ रहा था ..
ऐसे मे , मोहन के बापू , लालटेन उठाये  दाई माँ को लिवाने चल पड़े। मैं , उन्हें रोकती भी कैसे ? दाई माँ का घर गौरां परबत की ऊपरी ढलान पे था। उस दिन , दाई माँ का बच्चा , बस कुछ माह का होगा , बीमार था वह सुबह से , बेजान पडा था।
जैसे ही मोहन के बापू वहां बरखा के आवेग  मे गिरते पड़ते,
दाई माँ के घर पहुंचे और सांकल खटखटाई , दाई माँ ने आनेवाले का चेहरा देखे बिना ही अपने पति को आदेश दे दिया'इनसे कहो लौट  जाएँ ....मैं न जाऊंगी  आज कहीं  भी ..
मेरे बीमार नन्हे को छोड़कर आज मैं न जाऊ ...'और वे सुबकने लगीं ...‘ ऐसी भयंकर बारीश मे भला कौन आता ? उसके पति के लाख समझाने पर भी दाई माँ ने एक न मानी ...तब उसके पति ने गुस्से से आदेश देते हुए कहा
'देख भागवान , तुझे दाई का काम ऊपरवाले ने सिखलाया है

ये तेरे हाथ का हुन्नर है जो तू , नयी आत्मा को इस दुनिया मे लाने का नेक काम करती है ..ये तो ईश्वर की बंदगी है पगली ..यही तेरा सच्चा धरम है ....किसी मासूम की ज़िन्दगी को इस जगत मे आने से रोक न...ऐसे पाप को तेरे सर न चढ़ा …उस नई आनेवाली जान की सोच ..चली जा इस भले मानुष की घरवाली को मुक्ति दिलाने ..
हमारे बेटे के पास मैं रहूँगा  ! सच मैं अपने बेटे को छाती से चिपटाए रखूंगा तू जल्दी जा और जल्दी लौट आ …अपना मुन्ना मेरे पास रहेगा ..देख यूं ..'उसके पति ने मुन्ने को छाती से भींच कर दाई माँ को बाहर ढकेल दिया …
अब दाई माँ बार बार पीछे मुड़कर देखती , अपने मुन्ने के  प्यार मे उसकी चिंता करते हुई , आयी विवश माँ , दूसरी माँ को दर्द से छुटकारा देने अपना फ़र्ज़ निभाने आ पहुँची।
उस रात की भयानक बरखा और आंधी के बीच जन्मे हमारे कृष्ण से बालक का नाम हमने 'मोहन 'रखा ...ये वही मोहन है  बेटी  !
बाद मे पता चला के जिस वक्त मेरा मोहन जन्म ले रहा था,  दाई माँ का अपना बच्चा जान गँवा रहा था !! ...विधाता की करनी को कोयी बूझ न पाया है री …
उसके पति ने जान लिया था के अब उनका मुन्ना न बचेगा …
उसने तो मरे हुए मुन्ने को दाई  माँ के हाथों से छीन लिया था और दाई माँ को , हमारे घर भेज दिया था ..कैसा पत्थर का कलेजा किया होगा उस देवता ने !! जिसने मेरे मोहन को जीवन दान दिया ....अपनी घरवाली को भेज कर उसने हम पे जो एहसान किया,उसे मैं मरते दम तक ना भूल पाऊँगी ! जीवन लीला है ये ! अजब है ये जीवन और ये रिश्ते नाते ..'
माँ ने लम्बी सांस भर कर चावल का थाल दूर हटा दिया और आंसू पोंछने लगीं .उनके जाते ही तुमने मुझे लपक कर भींच लिया 'तुम अब तो मुझे छोड़कर नहीं न जाओगे न मोहन ? तुम मेरे हो न ? मेरे ही रहोगे न ? 'मैंने कहा
'क्यों आती हो यहां ? मेरे पास ? तुम तो दूर न जाओगी न कभी मुझसे ? मैं तुम्हारे बगैर नहीं रह पाऊंगा ....'
इतना कहकर हम दोनों रो पड़े थे ....दोनों विवश थे ..दोनों समर्पित ...दोनों अबोध और अनजान थे ...भविष्य के सामने अनजान होकर खड़े थे हम और तुम …उस शाम के बाद , तुम मुझसे मिलने दुबारा कभी ना आयी ...ना ही मुझे कहीं दीखलायीं दीं ...ना जाने क्या हुआ , तुम कहाँ चलीं गयीं थी  ? तुम्हे खोने के बाद , मैं किसी व्यक्ति के इतना नज़दीक , कभी न हो सका।
तुम मुझे सुरीले गीत की मदहोश करती धुन के साथ याद आती हो ...वेणु नदी की बहती धारा के साफ़ जल पर , मैं तुम्हारा चेहरा , आज भी साफ़ साफ़ देख सकता हूँ। ....कभी मेरे जीवन की सांझ यादों के झुरमुटों मे ठिठक कर , ठहर सी जती है तब तब एक नन्हा सा दिया, हाथों मे  थामे , पायल छनकाती  हुईं , दूर से आतीं हुईं , तुम मुझे दीख जाती हो .... मेरी यादों को उजागर करतीं हुईं तुम , मौन को तोड़कर , पास चली आती हो …
कभी न चाहते हुए भी मन खाली खाली हो जाता है तब,आहिस्ता आहिस्ता पग धरते हुई , तुम आ कर मेरे मन के कोने से निकली आह की तरह मेरी आँखों से , आंसू बन कर बह जाती हो तुम मेरे पास नहीं हो पर दिल आज भी तुम्हे महसूस करता है …आज मैं तुमसे न मिलकर भी खुश हूँ ….
क्यों के तुम आज भी अब भी , हर क्षण मेरे साथ हो , पता नहीं ,   ज़िन्दगी के किस मोड़ पर , तुम मुझ से फिर मिलोगी और मैं, तुम्हें निहारता हुआ , ठिठक कर, खडा रहूँगा  !  
जिस तरह उस बड़ी हवेली मे उस दिन प्रवेश कर,मैं ने तुम्हारा वह चित्र देखा था और तुम्हारे सेवक ने आकर कहा था 'साहब ये राजकुमारी रत्ना हैं  !
...इनके गुजरे २०० वर्ष हो गये ..'और मैं पागलों की तरह उस पुलिया पर आकर नदी की धारा को निहारता रहा था जहां हम और तुम , इस जनम मे पहली बार मिले थे .....

- लावण्या दीपक शाह

पंडित नरेंद्र शर्मा शताब्दी समारोह :( पारिवारिक सत्र से )

$
0
0
ॐ 
आदरणीय उपस्थित गणमान्य अतिथि गण ,
 साहित्य अकादमी नई दिल्ली,
 अध्यक्ष भाई श्री तिवारी जी तथा 
मुम्बई विश्वविद्यालय हिन्दी विभाग , 
डॉ करुणाशंकर जी तथा अन्य सभी ,
आप सभी को ' पापाजी पंडित नरेंद्र शर्मा और मेरी अम्मा सुशीला की मंझली पुत्री लावण्या का सादर ,
 स स्नेह अभिवादन ! स्वीकार करें ! 
उत्तर अमरीका के सिनसिनाटी नगर कि जो ओहायो प्रांत में है वहां से मुम्बई तक की लम्बी यात्रा करते हुए ,पूज्य पापाजी के 'शताब्दी समारोह 'में उपस्थित होना, मेरे लिए अत्याधिक हर्ष का क्षण है। 
उत्तर अमरीका के सिनसिनाटी नगर कि जो ओहायो प्रांत में है वहां से मुम्बई तक की लम्बी यात्रा करते हुए ,पूज्य पापाजी के 'शताब्दी समारोह 'में उपस्थित होना, मेरे लिए अत्याधिक हर्ष का क्षण है। 
अद्भुत, अविस्मरणीय और दुर्लभ ! इस क्षण को, कि जब हम सब यहां इकत्रित  हैं, मैं अपने अंतिम दिनों तक याद रखूंगी। 
मेरे शहर सिनसिनाटी में दिसंबर माह से बर्फ गिरने लगती है। झर झर झर झर श्वेत कणों को, आकाश से अवतरित होता देखते हुए, यही सोचती रही कि 'बस अब मैं भारत की पुण्यभूमि पर ना जाने कब पाँव रख पाऊँगी ! यह स्वप्न नहीं सत्य होगा।  ' 
           पूज्य पापाजी के घर , १९ वाँ रास्ता , खार , जब हम रहने आये थे तब मेरा अनुज परितोष, वर्ष भर का था। मैं पांच वर्ष की थी। उस घर से पहले, हम माटुंगा उपनगर के शिवाजी पार्क इलाके में रहे। 
मेरे शैशव की स्मृतियों के साथ अब आगे ले चलूँ। 
        मैं तीन वर्ष की थी तब पू पापाजी ने सफेद चोक से काली स्लेट पर 'मछली 'बनाकर मुझे सिखलाया और कहा  'तुम भी बनाओ ' 
मछली से एक वाक्या याद आया। हम बच्चे खेल रहे थे और मेरी सहेली लता गोयल ने मुझ पर पानी फेंक कर मुझे भिगो दिया। 
 मैं दौड़ी पापा , अम्मा के पास और कहा  'पापा , लता ने मुझे ऐसे भिगो दिया है कि जैसे मछली पानी में हो !'मेरी बात सुन पापा खूब हँसे और पूछा 
'तो क्या मछली ऐसे ही पानी में भीगी रहती है ? '
मेरा उत्तर था 'हाँ पापा , हम गए थे न एक्वेरियम , मैंने वहां देखा है।  '
 पापाजी ने अम्मा से कहा  'सुशीला।  
हमारी लावणी बिटिया कविता में बातें करती है ! ' 
   एक दिन अम्मा हमे भोजन करा रहीं थीं। हम खा नहीं रहे थे और उस रोज अम्मा अस्वस्थ भी थीं तो नाराज़ हो गईं। नतीजन , हमे डांटने लगी।  तभी पापा जी वहां आ गए और अम्मा से कहा
 'सुशीला खाते समय बच्चों को इस तरह डाँटो नहीं।' 
अम्मा ने जैसे तैसे हमे भोजन करवाया और एक कोने में खड़ी होकर वे चुपचाप रोने लगीं। मैंने देखा और अम्मा का आँचल खींच कर कहा ,अम्मा रोना नही। जब हम zoo [ प्राणीघर ] जायेंगें तब मैं ,पापा को शेर के पिंजड़े में रख दूंगीं।  ' 
इतना सुनते ही अम्मा की हंसी छूटी और कहा 'सुनिए , आपकी लावणी आपको शेर के पिजड़े में रखने को कह रही है ! ' पापा और अम्मा खूब हँसे। तो मैं, पापा की ऐसी बहादुर बेटी हूँ ! 
अक्सर पापाजी यात्रा पर देहली जाते तब अवश्य पूछते 'बताओ तुम्हारे लिए क्या लाऊँ ? ' एक बार मैंने कहा 'नमकीन ' !पापा मेरे लिए देहली से लौटे तो दालमोठ ले आये। उसे देख मैं बहुत रोई और कहा 'मुझे नमकीन  चाहिए ' 
पापाने प्यार से समझाते हुए कहा 'बेटा यही तो नमकीन है ' अम्मा ने उन से कहा 'इसे बस 'नमकीन 'शब्द पसंद है पर ये उसका मतलब समझ नहीं रही।  ' 
          हमारे घर आनेवाले अतिथि हमेशा कहा करते कि आपके घर 'स्वीच ओन और ऑफ़ 'हो इतनी तेजी से आपके घर गुजराती से हिन्दी और हिन्दी से गुजराती में बदल बदल कर बातें सुनाई देतीं हैं। 
पापाजी का कहना था 'बच्चे पहले अपनी मातृभाषा सीख ले तब विश्व की कोई भाषा सीखना कठिन नहीं। 
हम तीनों बहनें , बड़ी स्व वासवी , मैं लावण्या , मुझ से छोटी बांधवी हम तीनों गुजराती माध्यम से पढ़े  पाठ्यक्रम में संत नरसिंह मेहता की प्रभाती 'जाग ने जादवा कृष्ण गोवाळीया ' 
और 'जळ कमळ दळ छांडी जा ने बाळा स्वामी अमारो जागशे ' - 
यह कालिया मर्दन की कविता उन्हें बहुत पसंद थी और कहते 'सस्वर पाठ करो।  ' 
      हमारे खार के घर हम लोग आये तब याद है पापा अपनी स्व रचित कविता तल्लीन होकर गाते और हम बच्चे नृत्य करते। वे अपनी नरम हथेलियों से ताली बजाते हुए गाते 
'राधा नाचैं , कृष्ण नाचैं , नाचैं गोपी जन ,
 मन मेरा बन गया सखी री सुन्दर वृन्दावन ,
 कान्हा की नन्ही ऊँगली पर नाचे गोवर्धन ! '   
हमे बस इतना ही मालूम था कि 'हमारे हैं पापा ! ' 
वे एक असाधारण  प्रतिभाशाली व्यक्ति हैं, जिन्होंने अपने कीर्तिमान स्वयं रचे, यह तो अब कुछ समझ में आ रहा है।  
विषम या सहज परिस्थिती में स्वाभिमान के साथ आगे बढ़ना , उन्हीं के सम्पूर्ण जीवन से हमने पहचाना।  
नानाविध विषयों पर उनके वार्तालाप, जो हमारे घर पर आये कई विशिष्ट क्षेत्र के सफल व्यक्तियों के संग जब वे चर्चा करते , उसके कुछ अंश सुनाई पड़ते रहते। 
आज , उनकी कही हर बात, मेरे जीवन की अंधियारी पगडंडियों पर रखे हुए झगमगाते दीपकों की भाँति जान पड़ते हैं और वे मेरा मार्ग प्रशस्त करते हैं।  
पूज्य पापाजी से जुडी हर छोटी सी घटना भी आज मुझे एक अलग रंग की आभा लिए याद आती है।  
        मैं जब आठवीं कक्षा में थी तब कवि शिरोमणि कालिदास की 'मेघदूत 'से एक अंश; पापा जी ने मुझसे पढ़ने को कहा। जहां कहीं मैं लडखडाती , पापा मेरा उच्चारण शुद्ध कर देते। 
 आज मन्त्र और श्लोक पढ़ते समय , पूज्य पापाजी का स्वर कानों में गूंजता है।
 यादें , ईश्वर के समक्ष रखे दीप के संग , जीवन में उजाला भर देतीं हैं।  
उच्चारण शुद्धि के लिये यह भी पापा जी ने यह हमे सिखलाया था 
'गिल गिट  गिल गिट गिलगिटा , 
गज लचंक लंक पर चिरचिटा ' !
 मुझे पापा जी की मुस्कुराती छवि बड़ी भली लगती है। जब कभी वे खिलखिलाकर हँस पड़ते, मुझे बेहद खुशी होती। पापाजी का ह्रदय अत्यंत कोमल था। करूणा और स्नेह से लबालब ! 
      वैषणवजन वही हैं न जो दूसरों की पीड़ा से अवगत हों ? वैसे ही थे पापा ! कभी रात में हमारी तबियत बिगड़ती, हम पापा के पास जा कर धीरे से कहते 'पापा  , पापा 'तो वे फ़ौरन पूछते 'क्या बात है बेटा 'और हमे लगता अब सब ठीक है। 
'रख दिया नभ शून्य  में , किसने तुम्हें मेरे ह्रदय ?
 इंदु कहलाते , सुधा से विश्व नहलाते 
 फिर भी न जग ने जाना तुन्हें , मेरे ह्रदय ! ' 
और 
'अपने सिवा और भी कुछ है, जिस पर मैं निर्भर हूँ  
  मेरी प्यास हो न हो जग को, मैं , प्यासा निर्झर हूँ ' 
ऐसे शब्द लिखने वाले कवि के हृदयाकाश में, पृथ्वी के हरेक प्राणी , हर जीव के लिए अपार प्रेम था। 
मन में आशा इतनी बलवान कि, 
 'फिर महान बन मनुष्य , फिर महान बन 
  मन  मिला अपार प्रेम से भरा तुझे
  इसलिए की प्यास जीव मात्र की बुझे 
  अब न बन कृपण मनुष्य फिर महान बन ! ' 

  1. Photo
  2. पिता का वात्सल्य , पुत्री के लिए और बेटी का, 

  3. अपने पिता के लिए पवित्रतम सम्बन्ध है।  
     
 अम्मा को पहली २ कन्या संतान की प्राप्ति पर , पापा ने उन्हें माणिक और पन्ने  के आभूषण , उपहार में दिए। 
 तीसरी कन्या [ बांधवी ] के जन्म पर अम्मा उदास होकर कहने लगीं 
'नरेन जी लड़का कब होगा कहिये न ! आपकी ज्योतोष विद्या किस काम की ? मुझे न चाहिए ये सब ! '
 पापा ने कहा , 
'सुशीला तीन कन्या रत्नों को पाकर हम धन्य हुए। ईश्वर का प्रसाद हैं ये संतान! वे जो दें सर माथे ! '
 आज भारत में अदृश्य हो रही कन्या संख्या एक विषम चुनौती है।  
काश, पापा जी जैसे पिता, हर लड़की के भाग में हों तब मुझ सी ही हर बिटिया का जीवन धन्य हो जाए ! 
 कभी पापा मस्ती में, बांधवी जिसे हम प्यार से मोँघी बुलाते हैं उसे पकड़ कर कहते 
'वाह ये तो मेरा सिल्क का तकिया है ! 'तो वह कहती 'पापा , मैं तो आपकी मोँघी रानी हूँ , सिल्क का तकिया नहीं हूँ ! ' 
पापा हमे नियम से पोस्ट कार्ड लिखा करते थे। सम्बोधन में लिखते 'परम प्रिय बिटिया लावणी 'या 'मेरी प्यारी बिटिया मोँघी रानी 'ऐसा लिखते, जिसे देख कर, आज भी मैं मुस्कुराने लगती हूँ। 
 बड़ी वासवी जब १ वर्ष की थी बीमार हो गई तो डाक्टर के पास अम्मा और पापा उसे ले गए। बड़ी भीड़ थी।  वासवी रोने लगी।  एक सज्जन ने कहा 'कविराज एक गीत सुना कर चुप क्यों नहीं कर देते बिटिया को ! 'पापा हल्के से गुनगुनाने लगे और वासवी सचमुच शांत हो गई।  
कुछ अर्से पहले पापाजी की लिखी एक कविता देखी - 
'सुन्दर सौभाग्यवती अमिशिखा नारी 
 प्रियतम की ड्योढ़ी से पितृगृह सिधारी 
 माता मुख भ्राता की , पितुमुखी भगिनी 
 शिष्या है माता की , पिता की दुलारी ! ' 
ऐसे पिता को गुरु रूप में पाकर , उन्हें अपना पथ प्रदर्शक मान कर  मेरे लिए , जीवन जीना सरल और संभव हुआ है।  
मेरी कवितांजलि ने बारम्बार प्रणाम करते हुए कहा है 
'जिस क्षण से देखा उजियारा 
  टूट गए रे तिमिर जाल 
  तार तार अभिलाषा टूटी 
  विस्मृत गहन तिमिर अन्धकार 
 निर्गुण बने, सगुण वे उस क्षण 
 शब्दों के बने सुगन्धित हार 
 सुमनहार अर्पित चरणों पर 
 समर्पित जीवन का तार तार ! ' 
सच कहा है ' 'सत्य निर्गुण है।  वह जब अहिंसा, प्रेम, करुणा के रूप में अवतरित होता है तब सदगुण कहलाता है।'  
     एक और याद साझा करूँ ? हमारे पड़ौस में माणिक दादा के बाग़ से कच्चे पके नीम्बू और आम हम बच्चों ने एक उमस भरी दुपहरी में, जब सारे बड़े सो रहे थे , तोड़ लिए।  हम किलकारियाँ भर कर खुश हो रहे थे कि पापा आ गए , गरज कर कहा
 'बिना पूछे फल क्यों तोड़े ? जाओ जाकर लौटा आओ और माफी मांगो ' 
क्या करते ? गए हम, भीगी बिल्ली बने, सर नीचा किये ! पर उस दिन के बाद आज तक , हम अपने और पराये का भेद भूले नहीं। यही उनकी शिक्षा थी।  
              दूसरों की प्रगति व् उन्नति से प्रसन्न रहो। स्वाभिमान और अभिमान के अंतर को पहचानो। समझो।  अपना हर कार्य प्रामाणिकता पूर्वक करो। संतोष , जीवन के लिए अति आवश्यक है। ऐसे क दुर्गम पाठ , पापाजी व अम्मा के आश्रम जैसे पवित्र घर पर पलकर बड़ा होते समय हम ने कब सीख लिए , पता भी न चला।  
       सन  १९७४ में विवाह के पश्चात ३ वर्ष , लोस - एंजिलिस , कैलीफोर्निया रह कर हम, मैं और दीपक जी लौटे। १९७७ में मेरी पुत्री सिंदूर का जन्म हुआ। मैं उस वक्त पापा जी के घर गई थी।  मेरा ऑपरेशन हुआ था। भीषण दर्द, यातना भरे वे दिन थे।  रात, जब कभी  मैं उठती तो फ़ौरन पापा को वहां अपने पास पाती।  वे मुझे सहारा देकर कहते 'बेटा , तू चिंता न कर , मैं हूँ यहां ! ' 
               आज सिंदूर के पुत्र जन्म के बाद, वही वात्सल्य उँड़ेलते समय , पापा का वह कोमल स्पर्श और मृदु स्वर कानों में सुनाई पड़ता है और अतीत के गर्भ से भविष्य का उदय होता सा जान पड़ता है। पुत्र सोपान के जन्म के समय , पापा जी ने २ हफ्ते तक, मेरे व शिशु की सुरक्षा के लिए बिना नमक का भोजन खाया था।  
ऐसे वात्सल्य मूर्ति  पिता को, किन शब्दों में , मैं , उनकी बिटिया , अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करूँ ? कहने को बहुत सा  है - परन्तु समयावधि के बंधे हैं न हम ! 
हमारा मन कुछ मुखर और बहुत सा मौन लेकर ही इस भाव समाधि से, जो मेरे लिए पवित्रतम तीर्थयात्रा से भी अधिक पावन है, वही महसूस करें।  
 वीर, निडर , साहसी , देशभक्त , दार्शनिक , कवि और एक संत मेरे पापा की छवि मेरे लिए एक आदर्श पिता की छवि तो है ही परन्तु उससे अधिक 'महामानव 'की छवि का स्वरूप हैं वे !
पेट के बल लेट कर , सरस्वती देवी के प्रिय पापा की लेखनी से उभरती, कालजयी कविताएँ मेरे लिए प्रसाद रूप हैं।  
 'हे पिता , परम योगी अविचल , 
  क्यों कर हो गए मौन ? 
  क्या अंत यही है जग जीवन का 
  मेरी सुधि लेगा कौन ? ' 
बारम्बार शत शत प्रणाम ! 
- लावण्या 




Viewing all 117 articles
Browse latest View live